शनिवार, 25 दिसंबर 2021

 ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

 

जय श्री हरि: स्मरणम्

 *जय श्री राम*

*''सत्य को इच्छा होती है'' कि...''सब उसे जान ले'' और असत्य को हमेशा डर लगता है... कि... ''कोई उसे पहचान न ले''*


*आपका दिन मंगलमय हो*

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                 *"ॐ श्री हनुमते:नम:"*

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              *मनोजवं मारुततुल्यवेगं*

           *जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम्‌।* 

            *वातात्मजं वानरयूथमुख्यं*

             *श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये॥*

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                             कोई

                         भी रिश्ता

                     बड़ी-बड़ी बातें

                 करने से नहीं बल्कि..

           छोटी-छोटी बातों को समझने

                  से सच्चा और गहरा

                           होता है।

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💐 ॐ हनुमंते नमः💐


अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं

दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्। सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं

रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि॥

💐 जय श्रीराम💐

 *जय श्री राम*

*आने वाला कल कभी नही आता* ,, 

*वो जब भी आता है तो आज बनकर* *ही आता है* ,, 

*इसलिए आने वाले कल में जो भी* *अच्छा करने की चाह हो ,, उसकी* *शुरुआत आज से ही करना चाहिए* .. 


*शुभ प्रभात......*

*आपका दिन शुभ हो*

 *विषादप्यमृतं ग्राह्यं बालादपि सुभाषितम्।*

*अमित्रादपि सद्वृत्तं अमेध्यादपि कांचनम्॥*



*भावार्थ-- विष से भी मिले तो अमृत को स्वीकार करना चाहिए, छोटे बच्चे से भी मिले तो सुभाषित (अच्छी सीख) को स्वीकार करना चाहिए, शत्रु से भी मिले तो अच्छे गुण को स्वीकार करना चाहिए और गंदगी से भी मिले तो सोने को स्वीकार करना चाहिए।*


     

*┈┉❀꧁ जय जय श्री राम जी ꧂❀┉┈*..


*┈┉❀꧁सुप्रभात वन्दन ꧂❀┉┈*..

 सच्चिदानन्द रूपाय विश्वोत्पत्यादि हेतवे।

तापत्रय विनाशाय श्री कृष्णाय वयम नुमः।।


जिसका स्वरूप सच्चिदानन्द है, जो इस समस्त विश्वकी उत्पत्ति, पालन एवं संहार करते है, जो उसके भक्तो के लिए तीनो ताप का विनाश करते है, हम सभी वोह श्री राधा कृष्ण को नमन करते हैं।


सत –

      नित्य एवं शास्वत. प्रश्न: सत एवं असत में क्या अंतर है? उत्तर: सत वोह है जिसमे परिवर्तन नहीं होता है. वेदांत दर्शन में सत्य की व्याख्या यही है की जो तत्त्व परिवर्तनशील है वोह नाशवंत है अपितु सत्य नहीं, परन्तु जो प्राकृतिक बंधनों से पर है एवं परिवर्तनशील नहीं है, वोह ही सत्य हो सकता है।भगवद गीता में भी भगवान श्री कृष्ण कहते हैं---

        नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।

        उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः।।


असत् वस्तु का तो अस्तित्व नहीं है और सत् का कभी अभाव नहीं है। इस प्रकार इन दोनों का ही तत्त्व,  तत्त्वदर्शी ज्ञानी पुरुषों के द्वारा देखा गया है।


चित –

        शुद्ध चैतन्य।


आनंद – 

       परम विलास।

प्रश्न--

      सुख एवं आनंद में भेद है?


उत्तर--

       जी है, सुख इस संसार जगत के साथ द्वंद बंधनों से पर नहीं है, क्यूंकि सुख, दुःख के साथ बंधा हुआ है, जेसे हर्ष और शोक, ठंड और गर्मी, ऐसा ही इस संसार माया में द्वंद है परन्तु जो वेदिक शास्त्र जब आनंद की व्याख्या देते हे वोह इस संसार की अनुभूतियो के पर है जिसमे द्वन्द कदापि नहीं है.


रूपाय – 

       जिसका स्वरूप है।


विश्व –

      इस सकल संसार जिसमे सभी जल, पृथ्वी, वायु, तेज, अग्निसे बनाया गया है और सर्व सांख्य दर्शन के तत्त्वों जिसका उल्लेख श्रीमद्भागवत महापुराण में विस्तारपूर्वक रचना हुई है ।महाऋषि कपिल और माता देवहुति के संवाद में


उत्पति –

     प्रारम्भ,निर्माण।


प्रश्न--

    कृष्ण के पहले और कुछ था? 


उत्तर--

     नहीं।

श्रीमद भागवतमें भगवान कहते है-- -

        अहमेवासमेवाग्रे नान्यद  यत सदसत परम।

        पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम।।


सृष्टि के आरम्भ होने से पहले केवल मैं ही था, सत्य भी मैं था और असत्य भी मैं था, मेरे अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं था। सृष्टि का अन्त होने के बाद भी केवल मैं ही रहता हूँ, यह चर-अचर सृष्टि स्वरूप केवल मैं हूँ और जो कुछ इस सृष्टि में दिव्य रूप से स्थित है वह भी मैं हूँ, प्रलय होने के बाद जो कुछ बचा रहता है वह भी मै ही होता हूँ।

यह प्रमाण हे के भगवान कृष्ण के अलावा कुछ नहीं था. वोही इस इस सकल संसार के रचेता है।


आदि –

       वगेरे, का पोषण एवं संहार, इस शब्द जब हम श्लोक के स्थूल रूप में लिया तो शब्दार्थ होता है ‘वगेरे’, परन्तु जब हम उसके भावार्थ को समजे तो लिखा हुआ है ‘पोषण एवं संहार’. क्यूंकि उत्पत्ति की पहले व्याख्या की है तो सरल है की पोषण एवं संहार ही होना चाहिए।


प्रश्न---

     पोषण एवं संहार कौन करता है?


उत्तर---

      मूल तत्त्व केवल भगवान कृष्ण है परन्तु इस सकल संसार के लिया अन्य देवी देवता भगवान की आज्ञा से सृष्टि सेवा में व्यस्त है।


हेतवे –

      जिसका हेतु, निर्माता।


त्रय –

      तीनों,


ताप –

       दुःख का विभाजन।

       अध्यात्मिक, अधिदैविक एवं अधिभौतिक,


विनाशाय –

       संपूर्ण नष्ट करता है।


श्री –

     श्री राधा।


प्रश्न--

      यह राधा का नाम क्युं? 


उत्तर---

     वैदिक धर्मं अनुसार, जब हम प्रभु के नाम लेते हैं, उसके पहले हम उसके दैवीयशक्ति का आवाहन एवं स्मरण करते हैं।

श्रीमती राधारानी, श्री कृष्ण की अविछिन ह्लादिनी शक्ति है. श्री राधाजिकी कृपा से ही जीव श्री कृष्ण प्रेम को अनुभव कर सकते है।


कृष्णाय – 

         उस कृष्ण को जो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान है।


वयम –

       हम सब जीव।


नुमः –

      नमन करते हैं।


जब इस श्लोक का विभाजन करते हैं तो श्री कृष्ण के तीन लक्षणों के दर्शन होते है, वह है स्वरूप, कार्य और स्वभाव-

         सत, चित और आनंद, श्री कृष्णकी स्वरूप दर्शन है।


श्री कृष्ण का कार्य दर्शन है इस सकल संसार की उत्पत्ति, पालन एवं अंत में संहार, एवं तीसरा दर्शन है भगवान का स्वभाव, जो संतो, भक्तो एवं साधको के तीनों दुःख को मूल से विनाश कर देते हैं।

अयोध्या में आज का आधुनिक सुविधाएं

  राममंदिर परिसर राममय होने के साथ-साथ आधुनिक सुविधाओं से भी लैस होगा। रामलला के दरबार में रामभक्तों को दिव्य दर्शन की अनुभूति होगी। एक साथ ...