शनिवार, 25 दिसंबर 2021



उभय अगम जुग सुगम नाम तें।

कहेउँ  नामु  बड़  ब्रह्म  राम  तें॥

ब्यापकु  एकु   ब्रह्म  अबिनासी।

सत  चेतन   घन  आनँद  रासी॥

***

     निर्गुण और सगुण ब्रह्म दोनों ही जानने में सुगम नहीं हैं, लेकिन नाम जप से दोनों को आसानी से जाना जा सकता हैं, इसी कारण मैंने "राम" नाम को निर्गुण ब्रह्म और सगुण ब्रह्म राम से बड़ा कहा है, जबकि ब्रह्म एक ही है जो कि व्यापक, अविनाशी, सत्य, चेतन और आनन्द की खान है।

***

‐--‐-‐‐--------------‐-------------------------------------------

🌺🌼🌻🚩जय श्री सीतारामजी की🚩🌻🌼🌺

 *****! श्री राम!*****

रामाय राम भद्राय रामचंद्राय वेधसे !

रघुनाथाय नाथाय सीताया: पतये नमः!

रामं रामानुजं सीतां भरतं भरतानुजम !

सुग्रीवं वायुसूनुं च प्रणमामि पुनः पुनः! 

****************************

*******रामायण महाकाव्य*******


रामायणं महाकाव्यं सर्ववेदेषु सम्मति !

सर्वपाप प्रशमनं दुष्ट ग्रह निवारणम!


अर्थात***सूत जी कहते हैं कि मुनियों!

देवर्षि नारद जी ने श्री सनत कुमारों को जिस रामायण नामक महाकाव्य का गान सुनाया था वह समस्त पापों का नाश और दुष्ट ग्रहों के बाधा का निवारण करने वाला है और वह संपूर्ण वेद के तत्वों से अनुकूल और सम्मति वान है!

वरं वरेण्यं वरदं तु काव्यं संतारयत्याशु च सर्वलोकम!

संकल्पितार्थ प्रदमादिकाव्यं श्रुत्वा च रामस्य पदं प्रयाति!!


अर्थात श्री रामायण महाकाव्य अत्यंत उत्तम वरणीय और मनोवांछित वर देने वाला है! श्री रामायण का उत्तम पाठ और श्रवण करने वाले समस्त जगत को शीघ्र ही संसार सागर से पार कर देता है श्री रामायण को सुनकर मनुष्य श्री रामचंद्र जी के परम पद को प्राप्त कर लेता है!


कथा रामायणस्यापि नित्यं भवति यदगृहे!

तद् गृहं तीर्थरुपं हि दुष्टानां पापनाशनम!


इसलिए जिस घर में नित्य प्रतिदिन रामायण की कथा होती है या रामायण का पाठ होता है वह घर दुष्टों के पापों से मुक्त होकर तीर्थ बन जाता है इसलिए रामायण ही भगवान का वांग्मयी स्वरूप है अपने हृदय में प्रभु को धारण कर इसका श्रवण पठान और पूजन अवश्य करें और प्रभु से प्रेम करने के लिए श्री राम नाम का संकीर्तन जरूर करें!

रघुपति राघव राजाराम पतित पावन सीताराम!

सीताराम सीताराम सीताराम जय सीताराम

सीताराम सीताराम सीताराम जय सीताराम

जय रघुनंदन जय सियाराम जानकी वल्लभ तुम्हें प्रणाम!

बंदहु राम लखन वैदेही जय तुलसी के परम स्नेही!

श्री राम जय राम जय जय राम श्री राम जय राम जय जय राम!*********सादर जय सियाराम



अस प्रभु हृदयँ अछत अबिकारी।

सकल  जीव  जग  दीन  दुखारी॥

नाम   निरूपन   नाम   जतन   तें।

सोउ  प्रगटत जिमि  मोल रतन तें॥

***

      समस्त विकारों से मुक्त भगवान सभी के हृदय में रहते हैं फिर भी संसार के सभी जीव दीन हीन और दुःखी हैं। नाम के यथार्थ स्वरूप, महिमा, रहस्य और प्रभाव को जानकर श्रद्धा-पूर्वक नाम जपने से ब्रह्म उसी प्रकार प्रकट हो जाता है, जिस प्रकार रत्न की जानकारी होने से उसका मूल्य प्रकट हो जाता है।

***

‐--‐-‐‐--------------‐-------------------------------------------

🌺🌼🌻🚩जय श्री सीतारामजी की🚩🌻🌼🌺


*देह की ममता में ही सभी की ममतायें निहित हैं और देह का विश्व से विभाजन हो नहीं सकता!*

*!! ॐ श्री हरि: शरणम् !!*

🍁🌻🙏🌻🍁



निरगुन तें एहि भाँति बड़ नाम प्रभाउ अपार।

कहउँ नामु बड़ राम तें निज बिचार अनुसार॥

***

     इस प्रकार निर्गुण ब्रह्म से नाम का प्रभाव अत्यंत बड़ा है। अब अपने विचार के अनुसार कहता हूँ, कि नाम सगुण ब्रह्म राम से भी बड़ा है।

***

‐--‐-‐‐--------------‐-------------------------------------------

🌺🌼🌻🚩जय श्री सीतारामजी की🚩🌻🌼🌺

 भाई-बहनों, आन्जनेय नन्दन श्री बजरंग बली के विषय में गोस्वामी श्री तुलसीदास जी ने हनुमान चालीसा में जो, "चारो जुग परताप तुम्हारा" का उल्लेख किया है, सज्जनों! इसी विषय पर विचार करते हैं कि श्री मारूति नन्दन सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलयुग में कब-कब कहाँ-कहाँ, किस-किस, स्वरूप में किन-किन चरित्रों से युक्त थे। 


अन्जनी गर्भ सम्भूतोवायु पुत्रों महावल।

कुमारो वृह्मïचारिश्च हनुमन्ताय नमोनम:।।


सर्वप्रथम, सतयुग की चर्चा करते हैं- इस युग में पवन पुत्र भगवान श्री शंकरजी के स्वरूप से विश्व में अवस्थित थे, तभी तो इन्हें (रूद्रावतार) शिव स्वरूप लिखा और कहा गया है, गौस्वामी श्री तुलसीदासजी ने हनुमान चालीसा में ही "शंकर सुवन केसरी नन्दन" कह कर सम्बोधित किया है।


इतना ही नहीं जब-जब भगवान शंकरजी माता उमा को रामकथा सुनाते हैं, और उस राम चरित्र में जहाँ कहीं भी हनुमानजी का चरित्र आता है, तब-तब भोलेनाथ स्वयं सावधान होकर और मन को भी समाहित करके हनुमानजी का चरित्र कहते हैं, उस की एक झलक देखियें।

 

सावधान पुनि मन कर शंकर।

लागे कहन कथा अति सुन्दर॥

 

इस चोपाई का यह प्रसंग लंका दहन का है, लंका दहन के बाद  हनुमान जी महाराज प्रभु श्री राघवेन्द्र सरकार के चरणों में वन्दन करते हैं, और प्रभु उनको  हृदय से लगाते हैं, तब भोलेनाथ कितने प्रसन्न हो जाते हैं, उसकी झलक उक्त चोपाई में दिखाई पड़ती हैं। 


देखियें ऋष्यमूक पर्वत के मैदानी भाग में जब प्रथम वार राम और लक्ष्मण के साथ में हनुमानजी का मिलन होता है, तब प्रभु के द्वारा अपना परिचय देने पर केसरी नन्दन उनके पावन पगों में जब गिरते हैं, तो फिर भोलेनाथ गिरिजा से कह ही तो उठते हैं।

 

प्रभु पहिचान गहेउ पहि चरना।

से सुख उमा जाहिं नहिं वरना॥

  

इस प्रकार के अपने स्वरूप का वर्णन भोलेनाथ पार्वतीजी से करते हैं, अत: यह प्रमाणित है, कि श्री हनुमानजी सतयुग में शिवरूप में रहते हैं, त्रेतायुग में तो पवनपुत्र श्रीरामजी की छाया हैं, इनके बिना सम्पूर्ण चरित्र पूर्ण होता ही नहीं, 


श्रीरामजी भरतजी, सीताजी, सुग्रीव, विभिषण आदि और सम्पूर्ण कपि मण्डल और कोई भी उनके ऋण से मुक्त अर्थात उऋण नहीं हो सकते, इस प्रकार त्रेतायुग में तो हनुमानजी साक्षात विराजमान है, द्वापर युग में बजरंगबली अर्जुन के रथ पर विराजित हैं, इसका बड़ा ही सुन्दर प्रसंग है। 


एक बार किसी तीर्थाटन में अकस्मात ही अर्जुन का हनुमानजी से मिलन हो जाता है, और भक्त जब भक्त से मिलता है तो निश्चय ही भागवत चर्चा प्रारम्भ हो जाती है, तभी हनुमानजी से अर्जुन ने पुछा- राम और रावण के युद्घ के समय तो आप थे, हनुमानजी बोले में केवल उपस्थित ही नहीं था? किन्तु युद्घ भी कर रहा था। 


तभी अर्जुन ने कहा आपके स्वामी मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीरामजी तो बड़े ही श्रेष्ठ धनुषधारी थे, फिर उन्हें समुद्र पार जाने के लिए पत्थरों का सेतू बनवाने की क्या आवश्यकता थी, यदि में वहाँ उपस्थित होता तो समुद्र पर बाणों का पुल बना देता,  जिससे आपका पूरा वानर दल पार होता। 


तभी हनुमानजी ने कहा असम्भव, बाणों का पुल वहाँ पर कोई काम नहीं कर पाता, हमारा यदि एक भी वानर चढ़ता तो वाणों का पुल छिन्न-भिन्न हो जाता, अर्जुन ने कहा- नहीं, देखो ये सामने सरोवर हैं, में उस पर बाणों के पुल का निर्माण करता हूँ, आप इस पर चढ़ कर सरोवर को पार कर जाओगे, यदि आपके चलने से पुल टूट जायेगा तो में अग्नि में प्रवेश कर लूँगा।


यदि नहीं टूटता है तो आपको अग्नि में प्रवेश करना पड़ेगा, हनुमानजी बोले मुझे स्वीकार है, तब अर्जुन ने अपने प्रचंड बाणों से पुल तैयार कर दिया, जब तक पुल बन कर तैयार नहीं हुआ तब तक तो हनुमानजी अपने लघु रूप में ही रहे, लेकिन पुल के बन जाने पर हनुमानजी महाराज ने अपना रूप भी उसी समय का सा कर लिया, जैसा तुलसीदासजी ने राम चरित मानस में वर्णन किया है।


कनक भूदरा कार शरीरा। 

समय भयंकर अति बल वीरा॥

 

रामजी का स्मरण करके हनुमानजी महाराज उस बाणों के पुल पर चढ़ गयें, पहला पग रखते ही पुल सारा का सारा डगमगाने लगा, दूसरा पैर रखते ही चरमराया, किन्तु पुल टूटा नहीं, और तीसरा पैर रखते ही पूरा पुल ध्वस्त होकर सरोवर में समा गया, तभी हनुमानजी महाराज पुल से नीचे उतर आयें और अर्जुन से कहा कि अग्नि तैयार करो। 


अग्नि प्रज्‍वलित हुई, जैसे ही अर्जुन अग्रि में कूदने चले वैसे लीला पुरूषोत्तम श्रीकृष्ण प्रकट हो गयें और बोले ठहरो, तभी अर्जुन और हनुमानजी ने प्रणाम किया, इस पर प्रभु ने कहा क्या वाद विवाद चल रहा है? बताओ, इस पर अर्जुन ने सारा प्रसंग सुनाया, तब अर्जुन से भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा कि यह सब मेरी इच्छा से ही हुआ है।


यह सुनकर अर्जुन ने क्षमा मांगी, मैं तो बड़ा अपराधी निकला, मेरा ये अपराध कैसे दूर हो तब दयालु प्रभु ने कहा ये सब मेरी इच्छा से हुआ है, आप मन खिन्न मत करो, मेरी आज्ञा है, कि हनुमानजी अर्जुन के रथ और ध्वजा पर स्थान ग्रहण करें, इसलिये द्वापर में  हनुमानजी महाराज अर्जुन के ध्वजा पर स्थिति थे, ये द्वापर का प्रसंग रहा।

 

यत्र-यत्र रघुनाथ कीर्तन तत्र कृत मस्तकान्जलिम्। 

वाष्प वारि परिपूर्ण लोचनं मारूतिं नमत राक्षसान्तकम्।।

 

कलियुग में जहाँ-जहाँ भगवान श्रीरामजी की कथा कीर्तन होते हैं, वहाँ हनुमान जी गुप्त रूप में विराजमान रहते हैं, हनुमानजी महाराज कलियुग में गन्धमादन पर्वत पर निवास करते हैं ऐसा श्रीमद भागवत में वर्णन आता है, सीताजी के वचनों के अनुसार-


अजर अमर गुन निधि सुत होऊ।

करहु बहुत रघुनायक छोऊ।।

 

अत्यन्त बलशाली, परम पराक्रमी, जितेन्द्रिय, ज्ञानियों में आग्रगण्य तथा भगवान् राम के अनन्य-भक्त श्रीहनुमानजी का जीवन समाज के लिये सदा से प्ररेणादायक रहा है, वे वीरता की साक्षात् प्रतिमा है, एवम शक्ति तथा बल-पराक्रम की जीवन्त मूर्ति, भारतीय मल्ल-विद्या के यही आराध्य है, आप कभी अखाड़ों में जायें तो वहाँ आपको किसी दीवार के आले में या छोटे -मोटे मन्दिर में प्रतिष्ठिïत महावीर की प्रतिमा अवश्य मिलेगी, उनके चरणों का स्पर्श और नाम स्मरण करके ही पहलवान अपना कार्य शुरू करते हैं।


भाई-बहनों, हनुमानजी महाराज परम कृपालु भक्त की पुकार पर सद्य प्रभावेण रक्षा करते है, तल्लीनता से आर्त भाव से पुकारते ही भक्त को अपनी उपस्तिथि का विश्वाश इस घोर कलयुग मेँ भी कराते है, मेरे जीवन के अनुभव से मै ये निवेदन करबद्ध हो कर कर रहा हूँ, भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैँ- "संशय आत्मा विनश्यति" अपनी बुद्धि बल को बजरँगबली के चरणों मेँ अर्पित कर प्रेम से बोलो- जय श्री रामजी!!


जय श्री हनुमानजी!

 ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

 

जय श्री हरि: स्मरणम्

 *जय श्री राम*

*''सत्य को इच्छा होती है'' कि...''सब उसे जान ले'' और असत्य को हमेशा डर लगता है... कि... ''कोई उसे पहचान न ले''*


*आपका दिन मंगलमय हो*

 🔥🌼🌹✨⚜️⚜️✨🌹🌼🔥

                 *"ॐ श्री हनुमते:नम:"*

         *┈┄┉══❀((ॐ))❀══┉┈┈*

              *मनोजवं मारुततुल्यवेगं*

           *जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम्‌।* 

            *वातात्मजं वानरयूथमुख्यं*

             *श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये॥*

               *┄┉═══❀═══┉┈*

                             कोई

                         भी रिश्ता

                     बड़ी-बड़ी बातें

                 करने से नहीं बल्कि..

           छोटी-छोटी बातों को समझने

                  से सच्चा और गहरा

                           होता है।

        ┉══════════════┉

      

🔥🌼🌹✨⚜️⚜️✨🌹🌼🔥



💐 ॐ हनुमंते नमः💐


अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं

दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्। सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं

रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि॥

💐 जय श्रीराम💐

 *जय श्री राम*

*आने वाला कल कभी नही आता* ,, 

*वो जब भी आता है तो आज बनकर* *ही आता है* ,, 

*इसलिए आने वाले कल में जो भी* *अच्छा करने की चाह हो ,, उसकी* *शुरुआत आज से ही करना चाहिए* .. 


*शुभ प्रभात......*

*आपका दिन शुभ हो*

 *विषादप्यमृतं ग्राह्यं बालादपि सुभाषितम्।*

*अमित्रादपि सद्वृत्तं अमेध्यादपि कांचनम्॥*



*भावार्थ-- विष से भी मिले तो अमृत को स्वीकार करना चाहिए, छोटे बच्चे से भी मिले तो सुभाषित (अच्छी सीख) को स्वीकार करना चाहिए, शत्रु से भी मिले तो अच्छे गुण को स्वीकार करना चाहिए और गंदगी से भी मिले तो सोने को स्वीकार करना चाहिए।*


     

*┈┉❀꧁ जय जय श्री राम जी ꧂❀┉┈*..


*┈┉❀꧁सुप्रभात वन्दन ꧂❀┉┈*..

 सच्चिदानन्द रूपाय विश्वोत्पत्यादि हेतवे।

तापत्रय विनाशाय श्री कृष्णाय वयम नुमः।।


जिसका स्वरूप सच्चिदानन्द है, जो इस समस्त विश्वकी उत्पत्ति, पालन एवं संहार करते है, जो उसके भक्तो के लिए तीनो ताप का विनाश करते है, हम सभी वोह श्री राधा कृष्ण को नमन करते हैं।


सत –

      नित्य एवं शास्वत. प्रश्न: सत एवं असत में क्या अंतर है? उत्तर: सत वोह है जिसमे परिवर्तन नहीं होता है. वेदांत दर्शन में सत्य की व्याख्या यही है की जो तत्त्व परिवर्तनशील है वोह नाशवंत है अपितु सत्य नहीं, परन्तु जो प्राकृतिक बंधनों से पर है एवं परिवर्तनशील नहीं है, वोह ही सत्य हो सकता है।भगवद गीता में भी भगवान श्री कृष्ण कहते हैं---

        नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।

        उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः।।


असत् वस्तु का तो अस्तित्व नहीं है और सत् का कभी अभाव नहीं है। इस प्रकार इन दोनों का ही तत्त्व,  तत्त्वदर्शी ज्ञानी पुरुषों के द्वारा देखा गया है।


चित –

        शुद्ध चैतन्य।


आनंद – 

       परम विलास।

प्रश्न--

      सुख एवं आनंद में भेद है?


उत्तर--

       जी है, सुख इस संसार जगत के साथ द्वंद बंधनों से पर नहीं है, क्यूंकि सुख, दुःख के साथ बंधा हुआ है, जेसे हर्ष और शोक, ठंड और गर्मी, ऐसा ही इस संसार माया में द्वंद है परन्तु जो वेदिक शास्त्र जब आनंद की व्याख्या देते हे वोह इस संसार की अनुभूतियो के पर है जिसमे द्वन्द कदापि नहीं है.


रूपाय – 

       जिसका स्वरूप है।


विश्व –

      इस सकल संसार जिसमे सभी जल, पृथ्वी, वायु, तेज, अग्निसे बनाया गया है और सर्व सांख्य दर्शन के तत्त्वों जिसका उल्लेख श्रीमद्भागवत महापुराण में विस्तारपूर्वक रचना हुई है ।महाऋषि कपिल और माता देवहुति के संवाद में


उत्पति –

     प्रारम्भ,निर्माण।


प्रश्न--

    कृष्ण के पहले और कुछ था? 


उत्तर--

     नहीं।

श्रीमद भागवतमें भगवान कहते है-- -

        अहमेवासमेवाग्रे नान्यद  यत सदसत परम।

        पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम।।


सृष्टि के आरम्भ होने से पहले केवल मैं ही था, सत्य भी मैं था और असत्य भी मैं था, मेरे अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं था। सृष्टि का अन्त होने के बाद भी केवल मैं ही रहता हूँ, यह चर-अचर सृष्टि स्वरूप केवल मैं हूँ और जो कुछ इस सृष्टि में दिव्य रूप से स्थित है वह भी मैं हूँ, प्रलय होने के बाद जो कुछ बचा रहता है वह भी मै ही होता हूँ।

यह प्रमाण हे के भगवान कृष्ण के अलावा कुछ नहीं था. वोही इस इस सकल संसार के रचेता है।


आदि –

       वगेरे, का पोषण एवं संहार, इस शब्द जब हम श्लोक के स्थूल रूप में लिया तो शब्दार्थ होता है ‘वगेरे’, परन्तु जब हम उसके भावार्थ को समजे तो लिखा हुआ है ‘पोषण एवं संहार’. क्यूंकि उत्पत्ति की पहले व्याख्या की है तो सरल है की पोषण एवं संहार ही होना चाहिए।


प्रश्न---

     पोषण एवं संहार कौन करता है?


उत्तर---

      मूल तत्त्व केवल भगवान कृष्ण है परन्तु इस सकल संसार के लिया अन्य देवी देवता भगवान की आज्ञा से सृष्टि सेवा में व्यस्त है।


हेतवे –

      जिसका हेतु, निर्माता।


त्रय –

      तीनों,


ताप –

       दुःख का विभाजन।

       अध्यात्मिक, अधिदैविक एवं अधिभौतिक,


विनाशाय –

       संपूर्ण नष्ट करता है।


श्री –

     श्री राधा।


प्रश्न--

      यह राधा का नाम क्युं? 


उत्तर---

     वैदिक धर्मं अनुसार, जब हम प्रभु के नाम लेते हैं, उसके पहले हम उसके दैवीयशक्ति का आवाहन एवं स्मरण करते हैं।

श्रीमती राधारानी, श्री कृष्ण की अविछिन ह्लादिनी शक्ति है. श्री राधाजिकी कृपा से ही जीव श्री कृष्ण प्रेम को अनुभव कर सकते है।


कृष्णाय – 

         उस कृष्ण को जो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान है।


वयम –

       हम सब जीव।


नुमः –

      नमन करते हैं।


जब इस श्लोक का विभाजन करते हैं तो श्री कृष्ण के तीन लक्षणों के दर्शन होते है, वह है स्वरूप, कार्य और स्वभाव-

         सत, चित और आनंद, श्री कृष्णकी स्वरूप दर्शन है।


श्री कृष्ण का कार्य दर्शन है इस सकल संसार की उत्पत्ति, पालन एवं अंत में संहार, एवं तीसरा दर्शन है भगवान का स्वभाव, जो संतो, भक्तो एवं साधको के तीनों दुःख को मूल से विनाश कर देते हैं।

 .                               "मित्रता"


          इन्द्र से वरदान में प्राप्त एक अमोघ शक्ति कर्ण के पास थी, इन्द्र का कहा हुआ था कि 'इस शक्ति को तू प्राण संकट में पड़कर एक बार जिस पर भी छोड़ेगा, उसी की मृत्यु हो जायगी, परंतु एक बार से अधिक इसका प्रयोग नहीं हो सकेगा।' कर्ण ने वह शक्ति अर्जुन को मारने के लिये रख छोड़ी थी। उसे रोज दुर्योधनादि कहते कि तुम उस शक्ति का प्रयोग कर अर्जुन को मार क्यों नहीं देते। वह कहता कि आज अर्जुन के सामने आते ही उसे जरूर मारूंगा, पर रण में अर्जुन के सामने आने पर कर्ण इस बात को भूल जाता और उसका प्रयोग न करता। कारण यही था कि अर्जुन का रथ सामने आते ही कर्ण को पहले भगवान् के दर्शन होते । भगवान् उसे मोहित कर लेते जिससे वह शक्ति छोड़ना भूल जाता। अर्जुन को इस शक्ति के सम्बन्ध में कोई पता नहीं था, परंतु भगवान् सारी बातें जानते थे और वे हर तरह से अर्जुन को बचाने और जिताने के लिये सचेष्ट थे। उन्होंने स्वयं ही सात्यकि से कहा था-


        अहमेव     तु     राधेयं     मोहयामि     युधांवर।

        ततो    नावासृजच्छक्तिं    पाण्डवे    श्वेतवाहने॥

        फाल्गुनस्य  हि सा  मृत्युरिति चिन्तयतोऽनिशम्।

        न  निद्रा  न  च  मे  हर्षों   मनसोऽस्ति  युधांवर॥

        न  पिता  न  च  में  माता  न  यूयं   भ्रातरस्तथा।

        न  च  प्राणस्तथा   रक्ष्या   यथा   बीभत्सुराहवे॥

        त्रैलोक्यरान्याद् यत्किञ्चिद् भवेदन्यत्सुदुर्लभम्।

        नेच्छेयं  सात्वताहं  तद् विना  पार्थं धनञ्जयम्॥

        अतः  प्रहर्षः   सुमहान्   युयुधानाद्य   मेऽभवत्।

        मृतं   प्रत्यागतमिव   दृष्ट्वा   पार्थं  धनञ्जयम्॥

                         (द्रोणपर्व १८२/४०-४१, ४३-४५)


          ‘सात्यकि! मैंने ही कर्ण को मोहित कर रखा था, जिससे वह श्वेत घोड़ों वाले अर्जुन को इन्द्र की दी हुई शक्ति से नहीं मार सका था। इस शक्ति के निमित्त कर्ण को अर्जुन का काल समझने के कारण मुझे रात को नींद नहीं आती थी और कभी मन प्रसन्न नहीं रहता था। मैं अपने माता-पिता की, तुम लोगों की, भाइयों की और अपने प्राणों की रक्षा करना भी उतना आवश्यक नहीं समझता, जितना रण में अर्जुन की रक्षा करना समझता हूँ। सात्यकि! तीनों लोकों के राज्यों की अपेक्षा भी कोई वस्तु अधिक दुर्लभ हो तो मैं उसे अर्जुन को छोड़कर नहीं चाहता। अतः युयुधान! आज अर्जुन मानो मरकर लौट आये हों, इस प्रकार इन्हें जीता-जागता देख मुझे बड़ा भारी हर्ष हो रहा है।' धन्य हैं।

          इसीलिये भगवान् ने भीम पुत्र घटोत्कच को रात के समय युद्धार्थ भेजा। घटोत्कच ने अपनी राक्षसी माया से कौरव सेना का संहार करते-करते कर्ण का नाकों दम कर दिया, दुर्योधन आदि सभी घबरा गये। सभी ने खिन्न मन से कर्ण को पुकार कर कहा कि बस आधी रात के समय यह राक्षस हम सबको मार ही डालेगा, फिर भीम-अर्जुन हमारा क्या करेंगे। अतएव तुम इन्द्र की शक्ति का प्रयोग कर इसे पहले मारो, जिससे हम सबके प्राण बचें। आखिर कर्ण को वह शक्ति घटोत्कच पर छोड़नी पड़ी। शक्ति लगते ही घटोत्कच मर गया। वीर-पुत्र घटोत्कच की मृत्यु देखकर सभी पाण्डवों की आँखों में आँसू भर आये, परंतु श्रीकृष्ण को बड़ी प्रसन्नता हुई, वे हर्ष से प्रमत्त-से होकर बार-बार अर्जुन को हृदय से लगाने लगे। अर्जुन ने कहा-'भगवन् ! यह क्या रहस्य है ? हम सबका तो धीरज छूटा जा रहा है और आप हँस रहे हैं ?' तब श्रीकृष्ण ने सारा भेद बताकर कहा कि 'प्रिय पार्थ ! इन्द्र ने तेरे हित के लिये कर्ण से कवच-कुण्डल ले लिये थे। बदले में उसे एक शक्ति दी थी, वह शक्ति कर्ण ने तेरे मारने के लिये रख छोड़ी थी। उस शक्ति के कर्ण के पास रहते मैं सदा तुझे मरा ही समझता था। मैं सत्य की शपथ खाकर कहता हूँ कि आज भी, शक्ति न रहने पर भी, कर्ण को तेरे सिवा दूसरा कोई नहीं मार सकता। वह ब्राह्मणों का भक्त, सत्यवादी, तपस्वी, व्रताचारी और शत्रुओं पर भी दया करने वाला है। मैंने घटोत्कच को इसी उद्देश्य से भेजा था। अर्जुन ! तेरे हित के लिये ही मैं यह सब किया करता हूँ। चेदिराज शिशुपाल, भील एकलव्य, जरासन्ध आदि को विविध कौशलों से मैंने इसीलिये मारा था, मरवाया था, जिससे वे महाभारत-समर में कौरव का पक्ष न ले सकें। वे आज जीवित होते तो तेरी विजय बहुत ही कठिन होती। फिर यह घटोत्कच तो ब्राह्मणों का द्वेषी, यज्ञद्वेषी, धर्म का लोप करनेवाला और पापी था। इसे तो मैं ही मार डालता, परंतु तुम लोगों को बुरा लगेगा, इसी आशंका से नहीं मारा। आज मैंने ही इसका नाश करवाया है-


          ये हि धर्मस्य  लोसारो वध्यास्ते  मम पाण्डव।

          धर्मसंस्थापनार्थं   हि  प्रतिज्ञेषा  मया  कृ ता॥

          ब्रह्म सत्यं दमः शौचं धर्मो ह्रीः श्रीधृतिः क्षमा।

          यत्र   तत्र   रमे   नित्यमहं   सत्येन   ते  शपे॥

                                (द्रोणपर्व १८१/२८,२९,३०)


          ‘जो पुरुष धर्म का नाश करता है, मैं उसका वध कर डालता हूँ। धर्म की स्थापना करना ही मेरी प्रतिज्ञा है। मैं यह शपथ खाकर कहता हूँ कि जहाँ ब्रह्म भाव, सत्य, इन्द्रियदमन, शौच, धर्म, (बुरे कर्मोमें) लज्जा, श्री, धैर्य और क्षमा हैं, वहाँ मैं नित्य निवास करता हूँ।'

          अभिप्राय यह है कि तुम्हारे अंदर ये सब गुण हैं, इसीलिये मैं तुम्हारे साथ हूँ और इसीलिये मैंने कौरवों का पक्ष त्याग रखा है, नहीं तो मेरे लिये सभी एक-से हैं। फिर तुम घटोत्कच के लिये शोक क्यों करते हो ? अपना पुत्र भी हो तो क्या हुआ, जो पापी है, वह सर्वथा त्याज्य है। इस प्रकार मित्र अर्जुन के प्राण और धर्म की भगवान् ने रक्षा की।

      "जय जय श्री राधे"।🙏🙏

 🍃🌻🍃🌻🍃🌻🍃🌻🍃

कुछ लोगों को ऊंचाई पर पहुँचने की इतनी ज्यादा जल्दी होती है कि ...

छोटे लोगों के हाथ पकड़ने के बजाय बड़े लोगों के पांव पकड़ लेते हैं।


   🍃🌻🙏🏻🌻🍃

  

 *शब्दों में धार नहीं,*

*बल्कि आधार होना चाहिए,*

*क्योंकि जिन शब्दों में धार होती है,वो मन को काटते है,*

*और जिन शब्दों में आधार होता है, वो मन को जीत लेते है..!

 *दक्षिणा का महत्व*


ब्राह्मणों की दक्षिणा हवन की पूर्णाहुति करके एक मुहूर्त ( 24 ) मिनट के अन्दर दे देनी चाहिये , अन्यथा मुहूर्त बीतने पर 100  गुना  बढ जाती है , और तीन रात बीतने पर एक हजार , सप्ताह बाद दो हजार ,महीने बाद एक लाख , और  संवत्सर बीतने पर तीन करोड गुना यजमान को देनी होती है । यदि नहीं दे तो उसके बाद उस यजमान का  कर्म निष्फल हो जाता है , और  उसे ब्रह्महत्या लग जाती है , उसके हाथ से किये जाने वाला हव्य - कव्य देवता और पितर कभी प्राप्त नहीं करते हैं । इसलिए  ब्राह्मणों की दक्षिणा जितनी जल्दी हो देनी चाहिये ।


👆यह जो कुछ भी कहा है सबका शास्त्रोॆ में प्रमाण है ।👇


मुहूर्ते समतीते तु , भवेच्छतगुणा च सा ।


त्रिरात्रे तद्दशगुणा , सप्ताहे द्विगुणा मता ।।


मासे लक्षगुणा प्रोक्ता ,ब्राह्मणानां च वर्धते ।


संवत्सर व्यतीते तु , त्रिकोटिगुणा भवेत् ।।


कर्म्मं तद्यजमानानां , सर्वञ्च निष्फलं भवेत् ।


सब्रह्मस्वापहारी च , न कर्मार्होशुचिर्नर: ।।


🚩इसलिए चाणक्य ने कहा """नास्ति यज्ञसमो रिपु: """ मतलब यज्ञादि कर्म विधि से सम्पन्न हो तब लाभ अन्यथा सबसे बडे शत्रु की तरह है ।


🚩गीता में स्वयं भगवान ने कहा 👇


विधिहीनमसृष्टान्नं , मन्त्रहीनमदक्षिणम् ।


श्रद्धाविरहितं यज्ञं , तामसं परिचक्षते ।।


🚩बिना सही विधि से बनाया भोजन जैसे परिणाम में नुकसान करता है , वैसे ही ब्राह्मण के बोले गये मन्त्र दक्षिणा न देने पर नुकसान करते हैं ।


🚩शास्त्र कहते हैं लोहे के चने या टुकडे भी व्यक्ति पचा सकता है परन्तु ब्राह्मणों के धन को नहीं पचा सकता है ।किसी भी उपाय से ब्राह्मणों का धन लेने वाला हमेशा दु:ख ही पाता है । इस पर एक कहानी सुनाता हूँ शास्त्रों में वर्णित 👇


🚩 महाभारत का युद्ध चल रहा था , युद्ध के मैदान में सियार , आदि हिंसक जीव  योद्धाओं के गरम -२ खून को पी रहे थे , इतने में ही धृष्टद्युम्न ने तलवार से पुत्रशोक से दु:खी निशस्त्र द्रोणाचार्य की गर्दन काट दी । तब द्रोणाचार्य के गरम -२ खून को पीने के लिए सियारिन दौडती है , तो सियार अपनी सियारिन से कहता है 👇


🚩प्रिये  """ विप्ररक्तोSयं गलद्दगलद्दहति """ 


👆यह ब्राह्मण का खून है इसे मत पीना , यह शरीर को गला- गला कर नष्ट कर देगा । तब उस सियारिन ने भी ब्राह्मण द्रोणाचार्य का रक्तपान नहीं किया ।


🚩ऋषि - मुनियों का कर के रुप में खून लेने पर ही रावण के कुल का संहार हो गया ।इसलिए जीवन में कभी भी ब्राह्मणों के द्रव्य का अपहरण किसी भी रुप में नहीं करना चाहिये ।


🚩वित्तशाट्ठ्यं न कुर्वीत, सति द्रव्ये फलप्रदम ।


अनुष्ठान , पाठ - पूजन जब भी करवायें ब्राह्मणों को उचित दक्षिणा देनी चाहिये , और दक्षिणा के अतिरिक्त उनके आने - जाने का किराया आदि -२ पूछकर अलग से देना चाहिये । 


🚩उसके बाद विनम्रता से ब्राह्मणों की वचनों द्वारा भी सन्तुष्टि करते हुए आशीर्वाद देना चाहिये , ऐसा करने पर ब्राह्मण मुँह से नहीं बल्कि हृदय से आशीर्वाद देता है , और तब यजमान का कल्याण होता है ।


🚩यत्र भुंड्क्ते द्विजस्तस्मात् , तत्र भुंड्क्ते हरि: स्वयम् ।।


*_👆 जिस घर में इस तरह श्रद्धा से ब्राह्मण भोजन करवाया जाता है , वहाँ ब्राह्मण के रुप में स्वयं भगवान ही भोजन करते हैं । इत्यलम् - बहुत बडा हो जायेगा । धन्यवाद , पढें और आचरण भी करे ।*

जय श्री कृष्णा जय जगन्नाथ

*🌹नारायण सेवा🌹*

  *🌹जय जय मां 🌹*

🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹

 *_🎷जय श्री राम_ 🎷*

*हम...*

     *प्रभु श्री राम का नाम संकट में ही नहीं लेते..!*  

    *_बल्कि.._*

      *हमेंशा राम नाम लेते रहते हैं जिससे "जिंदगी" में आने वाले "संकट" आसानी से टल जाते हैं...!!*

           *🕉️🦚🕉️*



पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रदं।

मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपूरं शुभम्‌।

श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये।

ते संसारपतंगघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः॥


भावार्थ:-यह श्री रामचरित मानस पुण्य रूप, पापों का हरण करने वाला, सदा कल्याणकारी, विज्ञान और भक्ति को देने वाला, माया मोह और मल का नाश करने वाला, परम निर्मल प्रेम रूपी जल से परिपूर्ण तथा मंगलमय है। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इस मानसरोवर में गोता लगाते हैं, वे संसाररूपी सूर्य की अति प्रचण्ड किरणों से नहीं जलते।

***

‐--‐-‐‐--------------‐-------------------------------------------

🌺🌼🌻🚩जय श्री सीतारामजी की🚩🌻🌼🌺

 *मनुष्य के कर्मों का साक्षी कौन है ?*


मृत्युलोक में प्राणी अकेला ही पैदा होता है, अकेले ही मरता है। प्राणी का धन-वैभव घर में ही छूट जाता है। मित्र और स्वजन श्मशान में छूट जाते हैं। शरीर को अग्नि ले लेती है। पाप-पुण्य ही उस जीव के साथ जाते हैं। अकेले ही वह पाप-पुण्य का भोग करता है परन्तु धर्म ही उसका अनुसरण करता है।


‘शरीर और गुण (पुण्यकर्म) इन दोनों में बहुत अंतर है, क्योंकि शरीर तो थोड़े ही दिनों तक रहता है किन्तु गुण प्रलयकाल तक बने रहते हैं। जिसके गुण और धर्म जीवित हैं, वह वास्तव में जी रहा है।’


*पाप और पुण्य*


वेदों में जिन कर्मों का विधान है, वे धर्म (पुण्य) हैं और उनके विपरीत कर्म अधर्म (पाप) कहलाते हैं। मनुष्य एक दिन या एक क्षण में ऐसे पुण्य या पाप कर सकता है कि उसका भोग सहस्त्रों वर्षों में भी पूर्ण न हो।


*मनुष्य के कर्म के चौदह साक्षी*


सूर्य, अग्नि, आकाश, वायु, इन्द्रियां, चन्द्रमा, संध्या, रात, दिन, दिशाएं, जल, पृथ्वी, काल और धर्म–ये सब मनुष्य के कर्मों के साक्षी हैं।


सूर्य रात्रि में नहीं रहता और चन्द्रमा दिन में नहीं रहता, जलती हुई अग्नि भी हरसमय नहीं रहती; किन्तु रात-दिन और संध्या में से कोई एक तो हर समय रहता ही है। दिशाएं, आकाश, वायु, पृथ्वी, जल सदैव रहते हैं, मनुष्य इन्हें छोड़कर कहीं भाग नहीं सकता, इनसे छुप नहीं सकता। मनुष्य की इन्द्रियां, काल और धर्म भी सदैव उसके साथ रहते हैं। कोई भी कर्म किसी-न किसी इन्द्रिय द्वारा किसी-न-किसी समय (काल) होगा ही। उस कर्म का प्रभाव मनुष्य के ग्रह-नक्षत्रों व पंचमहाभूतों पर पड़ता है। जब मनुष्य कोई गलत कार्य करता है तो धर्मदेव उस गलत कर्म की सूचना देते हैं और उसका दण्ड मनुष्य को अवश्य मिलता है।


*कर्म से ही देह मिलता है*


पृथ्वी पर जो मनुष्य-देह है उसमें एक सीमा तक ही सुख या दु:ख भोगने की क्षमता है। जो पुण्य या पाप पृथ्वी पर किसी मनुष्य-देह के द्वारा भोगने संभव नही, उनका फल जीव स्वर्ग या नरक में भोगता है। पाप या पुण्य जब इतने रह जाते हैं कि उनका भोग पृथ्वी पर संभव हो, तब वह जीव पृथ्वी पर किसी देह में जन्म लेता है।


कर्मों के अवशेष भाग को भोगने के लिए मनुष्य मृत्युलोक में स्थावर-जंगम अर्थात् वृक्ष, गुल्म (झाड़ी), लता, बेल, पर्वत और तृण–आदि योनि प्राप्त करता है। ये सब दु:खों के भोग की योनियां हैं। वृक्षयोनि में दीर्घकाल तक सर्दी-गर्मी सहना, काटे जाने व अग्नि में जलाये जाने सम्बधी दु:ख भोगना पड़ता है। यदि जीव कीटयोनि प्राप्त करता है तो अपने से बलवान प्राणियों द्वारा दी गयी पीड़ा सहता है, शीत-वायु और भूख के क्लेश सहते हुए मल-मूत्र में विचरण करना आदि दारुण दु:ख उठाता है। इसी तरह से पशुयोनि में आने पर अपने से बलवान पशु द्वारा दी गयी पीड़ा का कष्ट पाता रहता है। पक्षी की योनि में आने पर कभी वायु पीकर रहना तो कभी अपवित्र वस्तुओं को खाने का कष्ट उठाना पड़ता है। यदि भार ढोने वाले पशुओं की योनि में जीव आता है तो रस्सी से बांधे जाने, डण्डों से पीटे जाने व हल जोतने का दारुण दु:ख जीव को सहना पड़ता है।


*विभिन्न पापयोनियां*


इस संसार-चक्र में मनुष्य घड़ी के पेण्डुलम की भांति विभिन्न पापयोनियों में जन्म लेता और मरता है–


–माता-पिता को कष्ट पहुंचाने वाले को कछुवे की योनि में जाना पड़ता है।


–मित्र का अपमान करने वाला गधे की योनि में जन्म लेता है।


–छल-कपट कर जीवनयापन करने वाला बंदर की योनि में जाता है।


–अपने पास रखी किसी की धरोहर को हड़पने वाला मनुष्य कीड़े की योनि में जन्म लेता है।


–विश्वासघात करने से मनुष्य को मछली की योनि मिलती है।


–विवाह, यज्ञ आदि शुभ कार्यों में विघ्न डालने वाले को कृमियोनि मिलती है।


–देवता, पितर व ब्राह्मणों को भोजन न कराकर स्वयं खा लेता है वह काकयोनि (कौए) में जाता है।


*दुर्लभ है मनुष्ययोनि*


इस प्रकार बहुत-सी योनियों में भ्रमण करके जीव किसी महान पुण्य के कारण मनुष्ययोनि प्राप्त करता है। मनुष्ययोनि प्राप्त करके भी यदि दरिद्र, रोगी, काना या अपाहिज जीवन मिले तो बहुत अपमान व कष्ट भोगना पड़ता है।


इसलिए दुर्लभ मनुष्य जन्म पाकर संसार-बंधन से मुक्त होने के लिए प्राणी को भगवान कृष्ण की सेवा-आराधना करनी चाहिए क्योंकि वे ही कर्मफल के दाता व संसार-बंधन से छुड़ाने वाले मोक्षदाता हैं। भगवान विष्णु के जो-जो स्वरूप हैं, उनकी भक्ति करने से मनुष्य संसार-सागर आसानी से पार कर परमधाम को प्राप्त करता है।


भगवान विष्णु ने बताया संसार-सागर से पार होने का उपाय


भगवान विष्णु ने संसार-सागर से पार होने का उपाय भगवान रुद्र को बताते हुए कहा कि ‘विष्णुसहस्त्रनाम’ स्तोत्र से मेरी नित्य स्तुति करने से मनुष्य भवसागर को सहज ही पार कर लेता है।


‘जिनका मन भगवान विष्णु की भक्ति में अनुरक्त है, उनका अहोभाग्य है, अहोभाग्य है; क्योंकि योगियों के लिए भी दुर्लभ मुक्ति उन भक्तों के हाथ में ही रहती है।’ (नारदपुराण)


*भक्तों की गति*


भक्त अपने आराध्य के लोक में जाते हैं। भगवान के लोक में कुछ भी बनकर रहना सालोक्य-मुक्ति है। भगवान के समान ऐश्वर्य प्राप्त करना सार्ष्टि-मुक्ति है। भगवान के समान रूप पाकर वहां रहना सारुप्य-मुक्ति है। भगवान के आभूषणादि बनकर रहना सामीप्य-मुक्ति कहलाती है। भगवान के श्रीविग्रह में मिल जाना सायुज्य-मुक्ति है।


जिस जीव को भगवान का धाम प्राप्त हो जाता है, वह भगवान की इच्छा से उनके साथ या अलग से संसार में दिव्य जन्म ले सकता है। वह कर्मबन्धन में नहीं बंधा होता है। संसार में भगवत्कार्य समाप्त करके वह पुन: भगवद्धाम चला जाता है।


*मुक्त पुरुष*


मनुष्य बिना कर्म किए रह नहीं सकता। कर्म करेगा तो पाप-पुण्य दोनों होंगे। लेकिन जो मनुष्य सबमें भगवत्दृष्टि रखकर भगवान की सेवा के लिए, उनकी आज्ञा का पालन करने के लिए और भगवान की प्रसन्नता के लिए कर्म करता है तो उसके कर्म भी अकर्म बन जाते हैं और कर्म-बंधन में नहीं बांधते हैं। वह संसार में रहते हुए भी नित्यमुक्त है।


तत्त्वज्ञानी पुरुष संसार के आवागमन से मुक्त हो जाते हैं। उनके प्राण निकलकर कहीं जाते नहीं बल्कि परमात्मा में लीन हो जाते हैं। सती स्त्रियां, युद्ध में मारे गए वीर और उत्तरायण के शुक्ल-मार्ग से जाने वाले योगी मुक्त हो जाते हैं।


*गीता में शुक्ल तथा कृष्ण मार्ग कहकर दो गतियों का वर्णन है*


जिनमें वासना शेष है, वे धुएं, रात्रि, कृष्णपक्ष, दक्षिणायन के देवताओं द्वारा ले जाए जाते हैं। ऊर्ध्वलोक में अपने पुण्य भोगकर वे फिर पृथ्वी पर जन्म लेते हैं।

जिनमें कोई वासना शेष नहीं है, वे अग्नि, दिन, शुक्लपक्ष, उत्तरायण के देवताओं द्वारा ले जाये जाते हैं। वे फिर पृथ्वी पर जन्म लेकर नहीं लौटते हैं।


*पितृलोक*


यह एक प्रकार का प्रतीक्षालोक है। एक जीव को पृथ्वी पर जिस माता-पिता से जन्म लेना है, जिस भाई-बहिन व पत्नी को पाना है, जिन लोगों के द्वारा उसे सुख-दु:ख मिलना है; वे सब लोग अलग-अलग कर्म करके स्वर्ग या नरक में हैं। जब तक वे सब भी इस जीव के अनुकूल योनि में जन्म लेने की स्थिति में न आ जाएं, इस जीव को प्रतीक्षा करनी पड़ती है। पितृलोक इसलिए एक प्रकार का प्रतीक्षालोक है।


*प्रेतलोक*


यह नियम है कि मनुष्य की अंतिम इच्छा या भावना के अनुसार ही उसे गति प्राप्त होती है। जब मनुष्य किसी प्रबल राग-द्वेष, लोभ या मोह के आकर्षण में फंसकर देह त्यागता है तो वह उस राग-द्वेष के बंधन में बंधा आस-पास ही भटकता रहता है। वह मृत पुरुष वायवीय देह पाकर बड़ी यातना भरी योनि प्राप्त करता है। इसीलिए कहा जाता है– *‘अंत मति सो गति।’*


🙏🌷जय श्री राम 🌷🙏

 रिश्तों में बढती हुई नफरत का 

कारण ये भी है, कि आजकल 

लोग गैरो को अपना बनाने में 

और अपनो को नजर अंदाज 

करने में लगे है,,

 

 नम: श्रीविश्वनाथाय

     देववन्द्यपदाय    ते ।

काशीशेशावतारो में

     देवदेव  ह्युपादिश ।।

मायाधीशं महात्मानं

       सर्वकारणकारणम्।

वन्दे तं माधवं देवं

     य: काशीं चाधितिष्ठति।।


हे देवदेव! आपने काशीमें‌ शासन करने हेतु मंगलमूर्ति शिवके रूपमें अवतार लिया है।आप विश्वके नाथ हैं, देवता आपके चरणोंकी वन्दना करते हैं,आप मुझको उपदेश दें, आपको नमस्कार है।

          जो मायाके अधीश्वर हैं, महान् आत्मा हैं,सभी कारणों के कारण हैं और जो काशीको सदा अपना अधिष्ठान बनाते हुए हैं,ऐसे उन भगवान् माधवको मैं प्रणाम करता‌ हूं।'

सुप्रभात, देवाधिदेव महादेव श्री काशी विश्वनाथ जी की कृपा दृष्टि सदैव आप एवं आपके परिवार पर बनी रहे ।  आज एक ऐतिहासिक दिन है ,जब श्री काशी विश्वनाथ धाम एक नए रूप में हम लोगों के सामने अवतरित होगा । धाम की दिव्यता को बढ़ाने हेतु आदरणीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी को कोटि कोटि धन्यवाद जिन्होंने काशी विश्वनाथ की गरिमा के अनुसार उनके धाम को प्रतिस्थापित किया । धाम की आभा एवं उसकी दिव्यता देखते ही बनती हैं । इस ऐतिहासिक एवं अविस्मरणीय दिन की एक बार पुनः आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएं । बाबा विश्वनाथ की असीम कृपा सदा सर्वदा आप लोगों पर बनी रहे । सदैव मानव जाति का कल्याण होता रहे । हमारा भारत नित् निरंतर आध्यात्मिक सांस्कृतिक एवं भौतिक प्रगति करता रहे । बाबा विश्वनाथ के श्री चरणों में बारंबार प्रणाम । 🙏🙏

 *जय श्री राम*

*ढल जाती है हर चीज़ अपने एक तय वक्त पर*

*लेकिन प्रेम, अपनत्व और एक दोस्ती है जो कभी बूढ़ी नहीं होता है।



निश्चित्वा यः प्रक्रमते 

        नान्तर्वसति कर्मणः,

 अवन्ध्यकालो वश्यात्मा 

         स वै पण्डित उच्यते।।


भावार्थः- *जिनके प्रयास एक दृढ़ प्रतिबद्धता से शुरु होते हैं, जो कार्य पूर्ण होने तक ज्यादा विश्राम नहीं करते हैं, जो समय नष्ट नहीं करते हैं और जो अपने विचारों पर नियंत्रण रखते हैं, वह बुद्धिमान है।।*


🌹🙏 *_गिरीराज धरण की जय हो_*🙏🌹


*ना_जाने_किस_रूप_में


*हरिहर एक सीधा-साधा किसान था। वह दिन भर खेतों में मेहनत से काम करता और शाम को प्रभु का गुणगान करता।*


*उसके मन की एक ही साध थी। वह उडुपि के भगवान श्री कृष्ण के दर्शन करना चाहता था। उडुपि दक्षिण कन्नड़ जिले का प्रमुख तीर्थ था। प्रतिवर्ष जब तीर्थयात्री वहां जाने को तैयार होते तो हरिहर का मन भी मचल जाता किंतु धन की कमी के कारण उसका जाना न हो पाता।*


*इसी तरह कुछ वर्ष बीत गए। हरिहर ने कुछ पैसे जमा कर लिए। घर से निकलते समय उसकी पत्नी ने बहुत-सा* *खाने-पीने का सामान बाँध दिया। उन दिनों यातायात के साधनों का अभाव था। तीर्थयात्री पैदल ही जाया करते।*


*रास्ते में हरिहर की भेंट एक बूढ़े व्यक्ति से हुई। बूढ़े के कपड़े फटे-पुराने थे और पाँव में जूते तक न थे। अन्य तीर्थयात्री उससे कतराकर निकल गए किंतु हरिहर से न रहा गया। उसने बूढ़े से पूछा-*

*'बाबा, क्या आप भी उडुपि जा रहे हैं?'*

*बूढ़े की आँखों में आँसू आ गए। उसने रुँधे स्वर में उत्तर दिया-*


*'मैं भला तीर्थ कैसे कर सकता हूँ? एक बच्चा तो बीमार है और दूसरे बेटे ने तीन दिन से कुछ नहीं खाया।'*


*हरिहर भला व्यक्ति था। उसका मन पसीज गया। उसने निश्चय किया कि वह उडुपि जाने से पहले बूढ़े के घर जाएगा। बूढ़े के घर पहुँचते ही हरिहर ने सबको भोजन खिलाया। बीमार बच्चे को दवा दी। बूढ़े के खेत, बीजों के अभाव में खाली पड़े थे। लौटते-लौटते हरिहर ने उसे बीजों के लिए भी धन दे दिया। जब वह उडुपि जाने लगा तो उसने पाया कि सारा धन तो खत्म हो गया था। वह चुपचाप अपने घर लौट आया। उसके मन में तीर्थयात्रा न करने का कोई दुख न था बल्कि उसे खुशी थी कि उसने किसी का भला किया है।*


*हरिहर की पत्नी भी उसके इस कार्य से प्रसन्‍न थी। रात को हरिहर ने सपने में भगवान कृष्ण को देखा। उन्होंने उसे आशीर्वाद दिया और कहा-*


*'हरिहर, तुम मेरे सच्चे भक्त हो। जो व्यक्ति मेरे ही बनाए मनुष्य से प्रेम नहीं करता, वह मेरा भक्त कदापि नहीं हो सकता।'*


*तुमने उस बूढ़े की सहायता की और रास्ते से ही लौट आए। उस बूढ़े व्यक्ति के वेष में मैं ही था। अनेक तीर्थयात्री मेरी उपेक्षा करते हुए आगे बढ़ गए, एक तुमने ही मेरी विनती सुनी।*


*मैं सदा तुम्हारे साथ रहूँगा! अपने स्वभाव से दया, करुणा और प्रेम का त्याग मत करना।'*


*हरिहर को तीर्थयात्रा का फल मिल गया था।*


*हमारे आस-पास जो दीन दुखी है, गाय या कोई अन्य जीव है उनकी सहायता, सेवा जैसे भी हो अवश्य करें क्योंकि*

*ना जाने किस रूप में नारायण मिल जाए..!!*

   *🙏🏼🙏🏿🙏🏾जय जय श्री राधे*🙏🏽🙏🏻🙏

 *संसार में सबसे ताकतवर*

           *व्यक्ति वही है.!*

    *जो "धोखा" खाने के बाद भी,*

*लोगो की भलाई करना नही छोड़ता.!!*


      

 .                            "अमूल्य दान"


         कुरुक्षेत्र युद्ध में विजय पाने की खुशी में पाण्डवों ने राजसूय यज्ञ किया। दूर-दूर से आए हजारों लोगों को बड़े पैमाने पर दान दिया गया। यज्ञ समाप्त होने पर चारों तरफ पाण्डवों की जय-जयकार हो रही थी। पांचो पाण्डव तथा श्रीकृष्ण यज्ञ की सफलता की चर्चा में मग्न थे। पाण्डव इस बात से संतुष्ट थे कि इस राजसूय यज्ञ का फल उन्हें अवश्य प्राप्त होगा।

         तभी एक नेवला जिसका आधा शरीर सुनहरा और आधा भूरा था, राजमहल के भण्डारगृह से बाहर निकला और यज्ञभूमि पर लोटने लगा। फिर वापस भण्डार गृह में चला गया। यह प्रक्रिया उसने चार-पांच बार दोहराई। इस विलक्षण नेवले की विचित्र हरकतें देख कर पांडवों को बड़ा आश्चर्य हुआ। 

         धर्मराज युधिष्ठिर पशु-पक्षियों की भाषा जानते थे। उन्होंने नेवले से कहा, यह तुम क्या कर रहे हो ? तुम्हें किस वस्तु की तलाश है ? नेवले ने आदरभाव से युधिष्ठिर को प्रणाम किया और बोला, हे राजन, आपने जो महान यज्ञ सम्पन्न किया है, उससे आपकी कीर्ति दसों दिशाओं में व्याप्त हो गई है। इस यज्ञ से आपको जिस पुण्य की प्राप्ति होगी, उसका कोई अंत नहीं है। मैं तो इस पुण्य के अनन्त सागर में से पुण्य का एक छोटा-सा कण अपने लिए ढूंढ रहा हूँ। लोग झूठ कहते हैं कि इससे वैभवशाली यज्ञ कभी नहीं हुआ, पर यह यज्ञ तो कुछ भी नहीं है। यज्ञ तो वह था जहाँ लोटने से मेरा आधा शरीर सुनहरा हो गया था। युधिष्ठिर के उस यज्ञ के बारे में पूछने पर नेवले ने कहा,

         एक बार भयानक अकाल पड़ा। लोग भूख और प्यास के मारे प्राण त्यागने लगे। चारों ओर त्राहि-त्राहि मची हुई थी। उस समय एक गाँव में एक गरीब ब्राह्मण अपनी पत्नी, पुत्र और पुत्रवधू के साथ रहता था। कई दिन तक ब्राह्मण परिवार में किसी को अन्न नहीं मिला। 

         एक दिन वह ब्राह्मण कहीं से थोड़ा-सा सत्तू माँगकर लाया और उसमें जल मिलाकर उसके चार गोल लड्डू जैसे बना लिये। जैसे ही ब्राह्मण अपने परिवार सहित उस सत्तू के लड्डूओं को खाने लगा, उसी समय एक अतिथि ब्राह्मण ने दरवाजे पर आकर कहा, मैं छ: दिनों से भूखा हूँ कृपया मेरी क्षुधा शान्त करें।

         अतिथि को भगवान् का रूप मानकर पहले वाले ब्राह्मण ने अपने हिस्से का सत्तू अतिथि को दे दिया, मगर उसे खाने के बाद भी अतिथि की भूख नहीं मिटी। तब ब्राह्मणी ने अपने हिस्से का सत्तू अतिथि को दे दिया इससे भी उसका पेट नहीं भरा तो बेटे और पुत्रवधू ने भी अपने-अपने हिस्से का सत्तू अतिथि को दे दिया। 

         अतिथि ब्राह्मण उस सत्तू को खाकर तृप्त हो गया और उसी स्थान पर हाथ धोकर चला गया। उस रात भी ब्राह्मण परिवार भूखा ही रह गया और कई दिन की भूख से उन चारों का प्राणान्त हो गया।

         जहाँ अतिथि ब्राह्मण ने हाथ धोए थे वहाँ सत्तू के कुछ कण जमीन पर गिरे पड़े थे। मैं (नेवला) उन कणों पर लोटने लगा तो जहाँ तक मेरे शरीर से उन कणों का स्पर्श हुआ, मेरा शरीर सुनहरा हो गया। मैं समझ नहीं पा रहा था कि यह सब कैसे हो गया ? 

         मैं एक ऋषि के पास पहुँचा और उन्हें सारा वृतान्त सुनाकर यह जानने की जिज्ञासा प्रकट की कि मेरे शरीर का आधा भाग सोने का कैसे हो गया ? ऋषि अपने ज्ञान के बल पर पूरी घटना जान गए थे और बोले, जिस जगह तुम लेटे हुए थे, उस स्थान पर सत्तू का थोड़ा-सा अंश बिखरा हुआ था। वह चमत्कारिक सत्तू तुम्हारे शरीर के जिस-जिस भाग पर लगा वह भाग स्वर्णिम हो गया है।

         इस पर मैंने ऋषि से कहा, कृपया मेरे शरीर के शेष भाग को भी सोने का बनाने हेतु कोई उपाय बताइए। ऋषि ने कहा, उस परिवार ने धर्म और मानवता के लिए अपने प्राणों का बलिदान दिया है। यही कारण है कि उसके बचे हुए अन्न में इतना प्रभाव उत्पन्न हो गया कि उसके स्पर्शमात्र से तुम्हारा आधा शरीर सोने का हो गया। भविष्य में यदि कोई व्यक्ति उस परिवार की भांति ही धर्मपूर्ण कार्य करेगा तो उसके बचे हुए अन्न के प्रभाव से तुम्हारा शेष शरीर भी स्वर्णिम हो जाएगा। 

         तब से मैं सारी दुनिया में घूमता फिरता हूँ कि वैसा ही यज्ञ कहीं और हो, लेकिन वैसा कहीं देखने को नहीं मिला इसलिए मेरा आधा शरीर आज तक भूरा ही रह गया है।

         जब मैंने आपके राजसूय यज्ञ के बारे में सुना, तो सोचा, आपने इस यज्ञ में अपार सम्पदा निर्धनों को दान की है और लाखों भूखों को भोजन कराया है, उसके प्रताप से मेरा शेष आधा शरीर भी सोने का हो जाएगा। यह सोचकर मैं बार-बार यज्ञभूमि में आकर धरती पर लोट रहा था किंतु मेरा शरीर तो पूर्व की ही भांति है। नेवले की बात सुनकर युधिष्ठिर लज्जित हो गए।

         श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को जब इस प्रकार चिंतामग्न देखा तो बोले, यह सत्य है कि आपका यज्ञ अपने में अद्वितीय था, जिसमें आप लोगो ने असंख्य भूखे व्यक्तियों की भूख शांत की, किन्तु नि:संदेह उस परिवार का दान आपके यज्ञ से बहुत बड़ा था क्योंकि उन लोगों ने उस स्थिति में दान दिया, जब उनके पास कुछ नहीं था। अपने प्राणों को संकट में डालकर भी उस परिवार ने अपने पास उपलब्ध समस्त सामग्री उस अज्ञात अतिथि की सेवा में अर्पित कर दी। आपके पास बहुत कुछ होते हुए भी आपने उसमें से कुछ ही भाग दान किया। अतः आपका दान उस परिवार के अमूल्य दान की तुलना में पासंग भर भी नहीं है।

         श्रीकृष्ण की बात सुनकर सभी पांडवों को समझ में आ गया कि दान, यज्ञ, तप आदि में आडम्बर होने से कोई फल प्राप्त नहीं होता है। दान आदि कार्य सदैव ईमानदारी के पैसे से ही करने चाहिए।

                      ----------:::×:::---------


       "जय जय श्री राधे"

**********************

**********************

 🌿🌼🌿🌼🌿🌼🌿🌼🌿

हक की लड़ाई तो अकेले ही लड़नी पड़ती है ...

सैलाब उमड़ पड़ता है जीत जाने के बाद।


   🌿🌼🙏🏻🌼🌿


 .                            गुरु की चिट्ठी 


          एक गृहस्थ भक्त अपनी जीविका का आधा भाग घर में दो दिन के खर्च के लिए पत्नी को देकर अपने गुरुदेव के पास गया। दो दिन बाद उसने अपने गुरुदेव को निवेदन किया के अभी मुझे घर जाना है। मैं धर्मपत्नी को दो ही दिन का घर खर्च दे पाया हूँ। घर खर्च खत्म होने पर मेरी पत्नी व बच्चे कहाँ से खायेंगे। गुरुदेव के बहुत समझाने पर भी वो नहीं रुका। तो उन्होंने उसे एक चिट्ठी लिख कर दी। और कहा कि रास्ते में मेरे एक भक्त को देते जाना। वह चिट्ठी लेकर भक्त के पास गया। उस चिट्ठी में लिखा था कि जैसे ही मेरा यह भक्त तुम्हें ये खत दे तुम इसको 6 महीने के लिए मौन साधना की सुविधा वाली जगह में बन्द कर देना। उस गुरु भक्त ने वैसे ही किया। वह गृहस्थ शिष्य 6 महीने तक अन्दर गुरु पद्धत्ति नियम, साधना करता रहा परन्तु कभी कभी इस सोच में भी पड़ जाता कि मेरी पत्नी का क्या हुआ, बच्चों का क्या हुआ होगा ??

          उधर उसकी पत्नी समझ गयी कि शायद पतिदेव वापस नहीं लौटेंगे। तो उसने किसी के यहाँ खेती बाड़ी का काम शुरू कर दिया। खेती करते करते उसे हीरे जवाहरात का एक मटका मिला। उसने ईमानदारी से वह मटका खेत के मालिक को दे दिया। उसकी ईमानदारी से खुश होकर खेत के मालिक ने उसके लिए एक अच्छा मकान बनवा दिया व आजीविका हेतु जमीन जायदात भी दे दी। अब वह अपनी ज़मीन पर खेती कर के खुशहाल जीवन व्यतीत करने लगी।

          जब वह शिष्य 6 महिने बाद घर लौटा तो देखकर हैरान हो गया और मन ही मन गुरुदेव के करुणा कृपा के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने लगा कि सद्गुरु ने मुझे यहाँ अहंकार मुक्त कर दिया। मै समझता था कि मैं नहीं कमाकर दूँगा तो मेरी पत्नी और बच्चों का क्या होगा ? करने वाला तो सब परमात्मा है। लेकिन झूठे अहंकार के कारण मनुष्य समझता है कि मैं करने वाला हूँ। वह अपने गुरूदेव के पास पहुँचा और उनके चरणों में पड़ गया। गुरुदेव ने उसे समझाते हुए कहा बेटा हर जीव का अपना अपना प्रारब्ध होता है और उसके अनुसार उसका जीवन यापन होता है। मैं भगवान के भजन में लग जाऊँगा तो मेरे घरवालों का क्या होगा ? मैं सब का पालन पोषण करता हूँ मेरे बाद उनका क्या होगा यह अहंकार मात्र है। वास्तव में जिस परमात्मा ने यह शरीर दिया है उसका भरण पोषण भी वही परमात्मा करता है।

                     जय श्री राधे कृष्णा जी🙏

हर हर महादेव lll

 *आज की अमृत कथा*


*#एक_और_झूठा_*

~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~


अम्मा!.आपके बेटे ने मनीआर्डर भेजा है।"

डाकिया बाबू ने अम्मा को देखते अपनी साईकिल रोक दी। अपने आंखों पर चढ़े चश्मे को उतार आंचल से साफ कर वापस पहनती अम्मा की बूढ़ी आंखों में अचानक एक चमक सी आ गई..

"बेटा!.पहले जरा बात करवा दो।"

अम्मा ने उम्मीद भरी निगाहों से उसकी ओर देखा लेकिन उसने अम्मा को टालना चाहा..

"अम्मा!. इतना टाइम नहीं रहता है मेरे पास कि,. हर बार आपके बेटे से आपकी बात करवा सकूं।"

डाकिए ने अम्मा को अपनी जल्दबाजी बताना चाहा लेकिन अम्मा उससे चिरौरी करने लगी..

"बेटा!.बस थोड़ी देर की ही तो बात है।"

"अम्मा आप मुझसे हर बार बात करवाने की जिद ना किया करो!"

यह कहते हुए वह डाकिया रुपए अम्मा के हाथ में रखने से पहले अपने मोबाइल पर कोई नंबर डायल करने लगा..

"लो अम्मा!.बात कर लो लेकिन ज्यादा बात मत करना,.पैसे कटते हैं।"

उसने अपना मोबाइल अम्मा के हाथ में थमा दिया उसके हाथ से मोबाइल ले फोन पर बेटे से हाल-चाल लेती अम्मा मिनट भर बात कर ही संतुष्ट हो गई। उनके झुर्रीदार चेहरे पर मुस्कान छा गई।

"पूरे हजार रुपए हैं अम्मा!"

यह कहते हुए उस डाकिया ने सौ-सौ के दस नोट अम्मा की ओर बढ़ा दिए।

रुपए हाथ में ले गिनती करती अम्मा ने उसे ठहरने का इशारा किया..

"अब क्या हुआ अम्मा?"

"यह सौ रुपए रख लो बेटा!" 

"क्यों अम्मा?" उसे आश्चर्य हुआ।

"हर महीने रुपए पहुंचाने के साथ-साथ तुम मेरे बेटे से मेरी बात भी करवा देते हो,.कुछ तो खर्चा होता होगा ना!"

"अरे नहीं अम्मा!.रहने दीजिए।"

वह लाख मना करता रहा लेकिन अम्मा ने जबरदस्ती उसकी मुट्ठी में सौ रुपए थमा दिए और वह वहां से वापस जाने को मुड़ गया। 

अपने घर में अकेली रहने वाली अम्मा भी उसे ढेरों आशीर्वाद देती अपनी देहरी के भीतर चली गई।

वह डाकिया अभी कुछ कदम ही वहां से आगे बढ़ा था कि किसी ने उसके कंधे पर हाथ रखा..

उसने पीछे मुड़कर देखा तो उस कस्बे में उसके जान पहचान का एक चेहरा सामने खड़ा था।

मोबाइल फोन की दुकान चलाने वाले रामप्रवेश को सामने पाकर वह हैरान हुआ.. 

"भाई साहब आप यहां कैसे?. आप तो अभी अपनी दुकान पर होते हैं ना?"

"मैं यहां किसी से मिलने आया था!.लेकिन मुझे आपसे कुछ पूछना है।" 

रामप्रवेश की निगाहें उस डाकिए के चेहरे पर टिक गई..

"जी पूछिए भाई साहब!"

"भाई!.आप हर महीने ऐसा क्यों करते हैं?"

"मैंने क्या किया है भाई साहब?" 

रामप्रवेश के सवालिया निगाहों का सामना करता वह डाकिया तनिक घबरा गया।

"हर महीने आप इस अम्मा को भी अपनी जेब से रुपए भी देते हैं और मुझे फोन पर इनसे इनका बेटा बन कर बात करने के लिए भी रुपए देते हैं!.ऐसा क्यों?"

रामप्रवेश का सवाल सुनकर डाकिया थोड़ी देर के लिए सकपका गया!. 

मानो अचानक उसका कोई बहुत बड़ा झूठ पकड़ा गया हो लेकिन अगले ही पल उसने सफाई दी..

"मैं रुपए इन्हें नहीं!.अपनी अम्मा को देता हूंँ।"

"मैं समझा नहीं?"

उस डाकिया की बात सुनकर रामप्रवेश हैरान हुआ लेकिन डाकिया आगे बताने लगा...

"इनका बेटा कहीं बाहर कमाने गया था और हर महीने अपनी अम्मा के लिए हजार रुपए का मनी ऑर्डर भेजता था लेकिन एक दिन मनी ऑर्डर की जगह इनके बेटे के एक दोस्त की चिट्ठी अम्मा के नाम आई थी।"

उस डाकिए की बात सुनते रामप्रवेश को जिज्ञासा हुई..

"कैसे चिट्ठी?.क्या लिखा था उस चिट्ठी में?"

"संक्रमण की वजह से उनके बेटे की जान चली गई!. अब वह नहीं रहा।"

"फिर क्या हुआ भाई?" 

रामप्रवेश की जिज्ञासा दुगनी हो गई लेकिन डाकिए ने अपनी बात पूरी की..

"हर महीने चंद रुपयों का इंतजार और बेटे की कुशलता की उम्मीद करने वाली इस अम्मा को यह बताने की मेरी हिम्मत नहीं हुई!.मैं हर महीने अपनी तरफ से इनका मनीआर्डर ले आता हूंँ।"

"लेकिन यह तो आपकी अम्मा नहीं है ना?"

"मैं भी हर महीने हजार रुपए भेजता था अपनी अम्मा को!. लेकिन अब मेरी अम्मा भी कहां रही।" यह कहते हुए उस डाकिया की आंखें भर आई।

हर महीने उससे रुपए ले अम्मा से उनका बेटा बनकर बात करने वाला रामप्रवेश उस डाकिया का एक अजनबी अम्मा के प्रति आत्मिक स्नेह देख नि:शब्द रह गया।



दंडक  बन  प्रभु  कीन्ह  सुहावन।

जन मन अमित नाम किए पावन॥

निसिचर   निकर   दले   रघुनंदन।

नामु सकल कलि कलुष निकंदन॥

***

           प्रभु श्रीराम जी ने भयानक दण्डक वन को सुहावना बनाया था, परन्तु नाम तो असंख्य मनुष्यों के मनों को पावन करने वाला है। श्रीरघुनन्दन जी ने पापीयों के दल का नाश किया था, लेकिन नाम तो कलियुग के समस्त पापों की जड़ को ही नाश करने वाला है।

***

‐--‐-‐‐--------------‐-------------------------------------------

🌺🌼🌻🚩जय श्री सीतारामजी की🚩🌻🌼🌺

 जय श्री हरि।


अपने को शुद्ध (अच्छा) बनाना चाहिये।अपने को शुद्ध बनायें

तो लोक-परलोक सब ठीक हो जायेंगे। 'मामकाः' और

'पाण्डवाः-यह भेद ही नाश करनेवाला है।अन्त में विजय

उसकी होती है, जो धर्म का ठीक पालन करता है। धर्म का बल ही बल है। न्याययुक्त मनुष्य के भीतर जो बल रहता है, वह अन्यायी के भीतर नहीं रहता।


स्वामी रामसुखदासजी महाराज,




*⚜️ आज का प्रेरक प्रसंग ⚜️*


                   *!! बंदर का फैसला !!*

~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~


एक व्यक्ति एक जंगल से गुजर रहा था कि उसने झाड़ियों के बीच एक सांप फंसा हुआ देखा। सांप ने उससे सहायता मांगी तो उसने एक लकड़ी की सहायता से सांप को वहां से निकाला। बाहर आते ही सांप ने उस व्यक्ति से कहा कि मैं तुम्हें डसूंगा।


उस व्यक्ति ने कहा कि मैंने तुम्हारे साथ अच्छा व्यवहार किया तुम्हें झाड़ियों से निकाला और तुम मेरे साथ गलत करना चाहते हो। सांप ने कहा कि हां भलाई का जवाब बुराई ही है। उस आदमी ने कहा कि चलो किसी से फैसला कराते हैं। चलते चलते एक गाय के पास पहुंचे और उसको सारी बातें बताकर फैसला पूछा तो उसने कहा कि वाकई भलाई का जवाब बुराई है क्योंकि जब मैं जवान थी और दूध देती थी तो मेरा मालिक मेरा ख्याल रखता था और चारा पानी समय पर देता था। लेकिन अब मैं बूढ़ी हो गई तो उसने भी ख्याल रखना छोड़ दिया है।


ये सुन कर सांप ने कहा कि अब तो मैं डसूंगा, उस आदमी ने कहा कि एक और फैसला ले लेते हैं। सांप मान गया और उन्होंने एक गधे से फैसला करवाया। गधे ने भी यही कहा कि भलाई का जवाब बुराई है, क्योंकि जब तक मेरे अंदर दम था मैं अपने मालिक के काम आता रहा जैसे ही मैं बूढ़ा हुआ उसने मुझे भगा दिया।


सांप उसको डंसने ही वाला था कि उसने मिन्नत करके कहा कि एक आखरी अवसर और दो, सांप के हक़ में दो फैसले हो चुके थे इसलिए वह आखरी फैसला लेने पर मान गया। अबकी बार वह दोनों एक बंदर के पास गये और उसे भी सारी बातें बताई और कहा फैसला करो।


बंदर ने आदमी से कहा कि मुझे उन झाड़ियों के पास ले चलो, सांप को अंदर फेंको और फिर मेरे सामने बाहर निकालो, उसके बाद ही मैं फैसला करूंगा।


वह तीनों वापस उसी जगह पर गये, उस आदमी ने सांप को झाड़ियों में फेंक दिया और फिर बाहर निकालने ही लगा था कि बंदर ने मना कर दिया और कहा कि उसके साथ भलाई मत करो, ये भलाई के काबिल नहीं है।


*शिक्षा:-*

यक़ीन मानिये वो बंदर हम भारतीयों से ज़्यादा बुद्धिमान था। हम भारतीयों को एक ही तरह के सांप बार बार भिन्न भिन्न नामों और तरीकों से डंसते हैं लेकिन हमें ये ख्याल नहीं आता कि ये सांप हैं उनके साथ भलाई करना अपने आप को कठिनाइयों में डालने के बराबर है।


*सदैव प्रसन्न रहिये।*

*जो प्राप्त है, पर्याप्त है।।*

 जय श्री हरि।


'ऋतु आये फल होय-यह बात संसार में लागू होती है।

परमात्मप्राप्ति की ऋतु नहीं आती।केवल लालसा की जरूरत है। परमात्मप्राप्ति की लगन नहीं है-यही बाधा है। आपके मनसे नाशवान का महत्त्व हट गया तो अन्तःकरण शुद्ध हो गया।


स्वामी रामसुखदासजी महाराज



अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम |

नायका मम सैन्यस्य संज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते || ७ ||



अस्माकम् - हमारे; तु - लेकिन; विशिष्टाः - विशेष शक्तिशाली; ये - जो; निबोध - जरा जान लीजिये, जानकारी प्राप्त कर लें, द्विज-उत्तम - हे ब्राह्मणश्रेष्ठ; नायकाः - सेनापति, कप्तान; मम - मेरी; सैन्यस्य - सेना के; संज्ञा-अर्थम् - सूचना के लिए; तान् - उन्हें; ब्रवीमि - बता रहा हूँ; ते - आपको ।


 *भावार्थ* 

किन्तु हे ब्राह्मणश्रेष्ठ! आपकी सूचना के लिए मैं अपनी सेना के उन नायकों के विषय में बताना चाहूँगा जो मेरी सेना को संचालित करने में विशेष रूप से निपुण हैं ।


 *श्लोक 1 . 8* 


भवान्भीष्मश्र्च कर्णश्र्च कृपश्र्च समितिंजयः |

अश्र्वत्थामा विकर्णश्र्च सौमदत्तिस्तथैव च || ८ ||


भवान् - आप; भीष्मः - भीष्म पितामह; च - भी; कर्णः - कर्ण; च - और; कृपः - कृपाचार्य; च - तथा; समितिञ्जयः - सदा संग्राम-विजयी; अश्र्वत्थामा - अश्र्वत्थामा; विकर्णः - विकर्ण; च - तथा; सौमदत्तिः - सोमदत्त का पुत्र; तथा - भी; एव - निश्चय ही; च - भी।

 

 *भावार्थ* 

मेरी सेना में स्वयं आप, भीष्म, कर्ण, कृपाचार्य; अश्र्वत्थामा, विकर्ण तथा सोमदत्त का पुत्र भूरिश्रवा आदि हैं जो युद्ध में सदैव विजयी रहे हैं ।



 *तात्पर्य* 

दुर्योधन उन अद्वितीय युद्धवीरों का उल्लेख करता है जो सदैव विजयी होते रहे हैं । विकर्ण दुर्योधन का भाई है, अश्र्वत्थामा द्रोणाचार्य का पुत्र है और सोमदत्ति या भूरिश्रवा बाह्लिकों के राजा का पुत्र है । कर्ण अर्जुन का आधा भाई है क्योंकि वह कुन्ती के गर्भ से राजा पाण्डु के साथ विवाहित होने के पूर्व उत्पन्न हुआ था । कृपाचार्य की जुड़वा बहन द्रोणाचार्य को ब्याही थी ।

 जीतने व कौमौ को जिंदा रखने के लिए शत्रु से भी सीखना चाहिए कि कैसे वे बढ़ रहै कैसे बिजली हो रहे।  और क्यों हम मिटकर लगातार सिमट रहे ,,,,,,सबसे बड़ा काम समाज का है ,,समाज का ताकतवर संगठित व धनवान, बलवान होना बहुत जरूरी है ,,,खूब काम करैं खूभ

 *गङ्गाधरं शशिकिशोरधरं त्रिलोकी*-

*रक्षाधरं निटिलचन्द्रधरं त्रिधारम्।*

*भस्मावधूलनधरं गिरिराजकन्या-*

*दिव्यावलोकनधरं वरदं प्रपद्ये।।*


*देवाधिदेव बाबा विश्वनाथ की जय।*


*हर हर महादेव!*

 *गङ्गाधरं शशिकिशोरधरं त्रिलोकी*-

*रक्षाधरं निटिलचन्द्रधरं त्रिधारम्।*

*भस्मावधूलनधरं गिरिराजकन्या-*

*दिव्यावलोकनधरं वरदं प्रपद्ये।।*


*देवाधिदेव बाबा विश्वनाथ की जय।*


*हर हर महादेव!*

 *जय श्री राम*

*सादगी परम सौंदर्य है क्षमा उत्कृष्ट बल है..!*

*विनम्रता सबसे अच्छा तर्क है, और अपनापन सर्वश्रेष्ठ रिश्ता है..!!*

*शुभ प्रभात.......*

*आपका दिन मंगलमय हो*



अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं

दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्‌।


सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं

रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि॥ 


***

        अतुल बल के धाम, सुमेरु के पर्वत के समान कान्ति से युक्त शरीर वाले, दैत्य रूपी वन को ध्वंस करने के लिए अग्नि रूप, ज्ञानियों में अग्रगण्य, संपूर्ण गुणों के निधान, वानरों के स्वामी, श्रीरघुनाथ जी के प्रिय भक्त पवन के पुत्र श्रीहनुमान्‌ जी को मैं नमन करता हूँ। 





राम  भालु  कपि कटुक बटोरा।

सेतु  हेतु  श्रमु  कीन्ह न  थोरा॥

नामु  लेत  भवसिन्धु   सुखाहीं।

करहु  बिचारु सुजन मन माहीं॥

***

      श्रीरामजी को तो भालू और बंदरों की सेना को एकत्र करने में और समुद्र पर पुल बाँधने के लिए बहुत परिश्रम करना पड़ा था, लेकिन नाम लेने मात्र से संसार समुद्र ही सूख जाता है, सज्जन मनुष्यों मन में विचार तो करो।

***

‐--‐-‐‐--------------‐----------------------------------------

 *"रास्ते" पर "गति" की सीमा है.!* 

*"बैंक" में "पैसों" की सीमा है.!*

*"परीक्षा" में "समय" की सीमा है.!*

 *परन्तु, हमारे "सोच" की कोई सीमा नही.!* *इसलिए "सदा" "श्रेष्ठ" "सोचें" और "श्रेष्ठ" पाएं..!!*

 *सानन्दं सदनं सुताश्च सुधिय:*

               *कान्ता प्रियभाषिणी l*

*सन्मित्रं सधनं स्वयोषिति रति:*

               *चाज्ञापरा: सेवका:  ll*

*आतिथ्यं शिवपूजनं प्रतिदिनं*

                *मिष्ठान्नपानं गृहे   l*

*साधो: संगमुपासते हि सततं*

                *धन्यो गृहस्थाश्रम:  ll*


भावार्थ -- *घर में सभी आनन्द हों, पुत्र बुद्धिमान् हो, पत्नी प्रिय बोलने वाली हो, अच्छे मित्र हो, धन हो, पति - पत्नी में प्रेम हो, सेवक आज्ञाकारी हो, जहां अतिथि सत्कार हो, सदा देव - पूजन होता हो, प्रतिदिन स्वादानुसार भोजन बनता हो और सत्पुरुषों का हमेशा संग होता हो -- ऐसा गृहस्थाश्रम धन्य है l*


            



      *यदि मनुष्य के मन में लोभ की ऐसी वृत्ति आवे कि हमें लाभ हो, तो उसे अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता, क्योंकि यह व्यक्ति के स्वभाव में है कि वह जब कोई कार्य करता है, तो उसमें लाभ चाहता है- नौकरी में लाभ, व्यापार में लाभ। अतएव यह नहीं कहा जा सकता कि लाभ की वृत्ति समाज से पूरी तरह मिट जाय या मिट जानी चाहिए। लोभ में में यदि एक ही इच्छा आवे तब वह समाज के लिए प्रायः घातक नहीं होती है, लेकिन जब लोभ की वृत्ति के रूप में मंथरा जीवन में आती है तब वह ऐसी प्रेरणा करती है कि व्यक्ति कभी भी एक वरदान नहीं माँगता, वह हमेशा दो वरदान माँगता है, कहता है कि मुझे लाभ हो और बगल वाले को घाटा जरूर हो। ऐसे लोभी को अपने लाभ का पूरा आनन्द तब मिलता है, जब दूसरे की हानि होती है। जब लोभ में ऐसी प्रवृत्ति आती है, तब वह रामराज्य में बाधक बन जाती है। कैकेयी और प्रतापभानु दोनों के जीवन में ऐसा विकृत लोभ दिखाई पड़ता है, पर अन्त में जाकर कैकेयी का रोग साध्य हो गया, जबकि प्रतापभानु का असाध्य। इस अन्तर का कारण यह था कि कैकेयी को श्री भरत के रूप में एक विलक्षण वैद्य मिले, जबकि प्रतापभानु को कपटमुनि के रूप में ठग-वैद्य मिला।*





राम   सकुल  रन  रावनु   मारा।

सीय सहित निज पुर पगु धारा॥

राजा    रामु   अवध   रजधानी।

गावत  गुन  सुर  मुनि बर बानी॥

सेवक   सुमिरत   नामु   सप्रीती।

बिनु श्रम प्रबल मोह दलु जीती॥

फिरत  सनेहँ मगन  सुख अपनें।

नाम  प्रसाद  सोच  नहिं  सपनें॥

***

      श्रीरामचन्द्र जी ने तो कुटुम्ब सहित रावण को युद्ध में मारकर सीता सहित उन्होंने अपने नगर अयोध्या में प्रवेश किया था। राम राजा बने, अवध उनकी राजधानी बनी, देवता और मुनि सुंदर वाणी में जिनका गुणगान करते हैं, लेकिन भक्त लोग प्रेम-पूर्वक नाम के स्मरण करने मात्र से बिना परिश्रम के मोह रूपी प्रबल सेना पर विजय प्राप्त करके प्रेम-मग्न होकर सुख में विचरण करते हैं, नाम के प्रसाद से उन्हें सपने में भी कोई चिन्ता नहीं सताती है।

***

‐--‐-‐‐--------------‐-------------------------------------------

🌺🌼🌻🚩जय श्री सीतारामजी की🚩🌻🌼🌺



*सम्बन्धः वारि च द्वयं हि समानं भवति।*

*न कश्चित् वर्णः न किञ्चित् रूपम्।*

*परन्तु तथापि जीवनस्य अस्तित्वस्य*

 *कृते सर्वाधिकं महत्वपूर्णम्॥*


   सम्बन्ध और जल

   एक समान होते हैं

   न कोई रंग, न कोई रूप

   पर फिर भी जीवन के

   अस्तित्व के लिए

   सबसे महत्वपूर्ण!!


*🙏🏻💐🙏🏻आपका आज* *का दिन परम् प्रसन्नता से* *परिपूर्ण रहे,ऐसी* 💐🌺🌸🌷💐🌺🌸🌷💐🌺🌷



ब्रह्म  राम  तें  नामु  बड़   बर  दायक  बर   दानि।

रामचरित सत कोटि महँ लिय महेस जियँ जानि॥

***

           "राम" नाम निर्गुण ब्रह्म और सगुण ब्रह्म दोनों से बड़ा है जो कि वरदान देने वालों को भी वर प्रदान करने वाला है। श्रीशंकर जी ने सौ करोड़ राम चरित्र में से इस "राम" नाम को सार रूप में चुनकर अपने हृदय में धारण किया हुआ है।

***

‐--‐-‐‐--------------‐-----------------------------------------

 एकमेव भगवद् स्मरण ही सर्वथा कल्याणकारी है।...वर्ना सांसारिक जीव का जीवन ही प्रायः विकारी है।।... विकार ब्यसन के अतिरिक्त भजन को भला कहाँ स्वीकारता है।... यदि भजन ही बनने लग जाय तब तो वह जीव मे टिक भी तो नही सकता है।।... अतः विकार मुक्त बन मेरी श्री स्वामिनी जू का मधुर चरणाश्रय गहें।... अपने मनुष्य जन्म को सफल बनाते हुये भाव व प्रेम सहित सप्रयास श्री राधे राधे ही कहें।।राधे राधे जय श्री कृष्ण हम आप सबकी यह ब्राह्मी बेला मेरे प्रभु श्री युगल सरकार के शीतल श्री चरणों की छाया में परम शांतिमय हो इन्ही शुभ कामनाओं सहित पुनः राधे राधे जय श्री कृष्ण सहित 

 🙏🌺🌻 मङ्गलं सुप्रभातम् 🌻🌺🙏 


नाम   प्रसाद   संभु   अबिनासी।

साजु    अमंगल   मंगल   रासी॥

सुक सनकादि सिद्ध मुनि जोगी।

नाम  प्रसाद   ब्रह्मसुख   भोगी॥

***

            नाम के प्रसाद से ही शंकर जी अविनाशी हैं और अमंगलकारी वेष धारण करने पर भी मंगलकारी खजाना हैं। शुकदेव जी, सनकादिक, सिद्ध, मुनि और योगीजन नाम के ही प्रसाद से ब्रह्मानन्द का भोग करते रहते हैं।

***

‐--‐-‐‐--------------‐-------------------------------------------

🌺🌼🌻🚩जय श्री सीतारामजी की🚩🌻🌼🌺

 *ज़िद, गुस्सा, गलतियां और लालच..* 

*खर्राटों की तरह होते हैं,* 

*दूसरा करे तो चुभता है,*  

*पर ख़ुद करें तो अहसास तक नहीं होता।*

🚩 *जय श्री राम।* 🙏💐🌹

'बाधाएं आती हैं आएं, घिरें प्रलय की घोर घटाएं, पांवों के नीचे अंगारे, सिर पर बरसें यदि ज्वालाएं, निज हाथों में हंसते-हंसते, आग लगाकर जलना होगा, कदम मिलाकर चलना होगा।' - अटल जी

 🌹  तुलसी पुजन दिवस की #हार्दिक बधाई और #शुभकामनायें 🍁

👉 भारतीय संस्कृत में तुलसी का स्थान पवित्र और महत्व पूर्ण है, आरोग्य प्रदायिनी , सुख- शान्ति के  प्रतिक और माँ के समान माना गया है । तुलसी जी का पौधा धार्मिक , वैज्ञानिक और स्वास्थ्य के रूप से सदैव पूजनीय है l कहते है की तुलसी जी का पौधा घर पर संकट आने से पहले ही ईशारे देना शुरू कर देता है l 25 दिसम्बर को क्रिसमस ट्री सजाने से अच्छा है की #तुलसी का पौधा लगाये और उसका पुजन करे !
​☘ तुलसी का पौधा घर में होने से नकरात्मक शक्तियो एवं दुष्ट विचारो से रक्षा होती है उनका पुजन करने से पूर्व जन्म के पाप जल कर विनिष्ट हो जाते है और ​तुलसी कई ओषधियों का कार्य करती है !​
☘ तुलसी पत्र भगवान विष्णु को शालिग्राम जी को और शंख पर चढाने से भगवान अति प्रसन्न होते हैं । उस चढी हुई तुलसी को भगवान विष्णु के चरणामृत के साथ ग्रहण करने से पापो का क्षय होता है। शरीर रोग मुक्त होता है।
☘ तुलसी के निकट जिस मंत्र-स्तोत्र आदि का जप-पाठ किया जाता है, वह सब अनंत गुना फल देनेवाला होता है ।
☘ प्रेत, पिशाच, ब्रह्मराक्षस, भूत, दैत्य आदि सब तुलसी के पौधे से दूर भागते है ।
ब्रह्महत्या आदि ताप तथा पाप और बुरे विचार से उत्पन्न होनेवाले रोग तुलसी के सामीप्य एवं सेवन से नष्ट हो जाते हैं ।
☘ तुलसी का पूजन, रोपण व धारण पाप को जलाता है और स्वर्ग एवं मोक्ष प्रदायक है ।
☘ श्राद्ध और यज्ञ आदि कार्यों में तुलसी का एक पत्ता भी महान पुण्य देनेवाला है ।
जो चोटी में तुलसी स्थापित करके प्राणों का परित्याग करता है, वह पापराशि से मुक्त हो जाता है ।
☘ तुलसी के नाम-उच्चारण से मनुष्य के पाप नष्ट हो जाते हैं तथा अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है ।
☘ तुलसी ग्रहण करके मनुष्य पातकों से मुक्त हो जाता है । तुलसी पत्ते से टपकता हुआ जल जो अपने सिर पर धारण करता है, उसे गंगास्नान और १० गोदान का फल प्राप्त होता है ।
☘ माँ तुलसी बीमारियों में रोगाणु प्रतिरोधक क्षमता का काम करती हैं।
☘ यह गीली ही नहीं सूखने के बाद भी मुर्दों को मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करने वाली है। तुलसी में नित्य नियम से जल अर्पण करने वाले इसके सम्पर्क में आते हैं जिससे आपको आरोग्यता की प्राप्ति होती हैं। 🌹
🌷 जय माँ  तुलसी , तुलस्यै नमः, #तुलसी का पौधा लगाये 🌷 

 बात पुरातन बीत गई जो, क्यों हम वह गाना गायें।

नये वर्ष में काम भला कर, आओ जग पे छा जायें।।
बुरे कर्म का बुरा नतीजा, सदियों जग देता ताना।
आज खड़ा जो सम्मुख अपने, वह भी है जाने वाला।।

कुछ अच्छे कुछ बुरे पलों को, वर्ष पुरातन दिखा गया।
जाते जाते  ना जाने यह, क्या  कुछ हमको सिखा गया।।
आना जाना रीत यही है, पल यही अमृत विष प्याला।
आज खड़ा जो सम्मुख अपने, वह भी है जाने वाला।।

 बीते पल की बात करें क्या , लौट नहीं आने वाला।

आज खड़ा जो सम्मुख अपने, वह भी है जाने वाला।।

बात करें चल उस कल की जो, कल ही कल आजायेगा।
जीवन में फिर आशाओं के, दीप जलाकर जायेगा।।
अतीत बने जो पल तीखे थे, गीत न वह गाने वाला।
आज खड़ा जो सम्मुख अपने, वह भी है जाने वाला।।

 दूध में दरार पड़ गई... 

ख़ून क्यों सफ़ेद हो गया?

भेद में अभेद खो गया।

बंट गये शहीद, गीत कट गए,

कलेजे में कटार दड़ गई।

दूध में दरार पड़ गई।


खेतों में बारूदी गंध,

टूट गये नानक के छंद

सतलुज सहम उठी, व्यथित सी बितस्ता है।

वसंत से बहार झड़ गई

दूध में दरार पड़ गई।


अपनी ही छाया से बैर,

गले लगने लगे हैं ग़ैर,

ख़ुदकुशी का रास्ता, तुम्हें वतन का वास्ता।

बात बनाएं, बिगड़ गई।

दूध में दरार पड़ गई।

 

एक बरस बीत गया...

झुलासाता जेठ मास 

शरद चांदनी उदास 

सिसकी भरते सावन का 

अंतर्घट रीत गया 

एक बरस बीत गया 

 

सीकचों मे सिमटा जग 

किंतु विकल प्राण विहग 

धरती से अम्बर तक 

गूंज मुक्ति गीत गया 

एक बरस बीत गया 

 

पथ निहारते नयन 

गिनते दिन पल छिन 

लौट कभी आएगा 

मन का जो मीत गया 

एक बरस बीत गया

 

क्या खोया, क्या पाया जग में...

क्या खोया, क्या पाया जग में

मिलते और बिछुड़ते मग में

मुझे किसी से नहीं शिकायत

यद्यपि छला गया पग-पग में

एक दृष्टि बीती पर डालें, यादों की पोटली टटोलें!


पृथ्वी लाखों वर्ष पुरानी

जीवन एक अनन्त कहानी

पर तन की अपनी सीमाएं

यद्यपि सौ शरदों की वाणी

इतना काफ़ी है अंतिम दस्तक पर, खुद दरवाज़ा खोलें!


जन्म-मरण अविरत फेरा

जीवन बंजारों का डेरा

आज यहां, कल कहां कूच है

कौन जानता किधर सवेरा

अंधियारा आकाश असीमित,प्राणों के पंखों को तौलें!

अपने ही मन से कुछ बोलें!

मैंने जन्म नहीं मांगा था...

मैंने जन्म नहीं मांगा था, 

किन्तु मरण की मांग करुंगा। 


जाने कितनी बार जिया हूं, 

जाने कितनी बार मरा हूं। 

जन्म मरण के फेरे से मैं, 

इतना पहले नहीं डरा हूं। 


अन्तहीन अंधियार ज्योति की, 

कब तक और तलाश करूंगा। 

मैंने जन्म नहीं मांगा था, 

किन्तु मरण की मांग करूंगा। 


बचपन, यौवन और बुढ़ापा, 

कुछ दशकों में ख़त्म कहानी। 

फिर-फिर जीना, फिर-फिर मरना, 

यह मजबूरी या मनमानी? 


पूर्व जन्म के पूर्व बसी— 

दुनिया का द्वारचार करूंगा। 

मैंने जन्म नहीं मांगा था, 

किन्तु मरण की मांग करूंगा।

 

बेनक़ाब चेहरे हैं, दाग़ बड़े गहरे हैं... 

पहली अनुभूति:
गीत नहीं गाता हूं

बेनक़ाब चेहरे हैं,
दाग़ बड़े गहरे हैं 
टूटता तिलिस्म आज सच से भय खाता हूँ
गीत नहीं गाता हूं
लगी कुछ ऐसी नज़र
बिखरा शीशे सा शहर

अपनों के मेले में मीत नहीं पाता हूं
गीत नहीं गाता हूं

पीठ मे छुरी सा चांद
राहू गया रेखा फांद
मुक्ति के क्षणों में बार बार बंध जाता हूं
गीत नहीं गाता हूं

दूसरी अनुभूति:
गीत नया गाता हूं

टूटे हुए तारों से फूटे बासंती स्वर
पत्थर की छाती मे उग आया नव अंकुर
झरे सब पीले पात
कोयल की कुहुक रात

प्राची में अरुणिमा की रेख देख पाता हूं
गीत नया गाता हूं

टूटे हुए सपनों की कौन सुने सिसकी
अन्तर की चीर व्यथा पलको पर ठिठकी
हार नहीं मानूंगा,
रार नहीं ठानूंगा,

काल के कपाल पे लिखता मिटाता हूं
गीत नया गाता हूं

अयोध्या में आज का आधुनिक सुविधाएं

  राममंदिर परिसर राममय होने के साथ-साथ आधुनिक सुविधाओं से भी लैस होगा। रामलला के दरबार में रामभक्तों को दिव्य दर्शन की अनुभूति होगी। एक साथ ...