भाई-बहनों, आन्जनेय नन्दन श्री बजरंग बली के विषय में गोस्वामी श्री तुलसीदास जी ने हनुमान चालीसा में जो, "चारो जुग परताप तुम्हारा" का उल्लेख किया है, सज्जनों! इसी विषय पर विचार करते हैं कि श्री मारूति नन्दन सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलयुग में कब-कब कहाँ-कहाँ, किस-किस, स्वरूप में किन-किन चरित्रों से युक्त थे।
अन्जनी गर्भ सम्भूतोवायु पुत्रों महावल।
कुमारो वृह्मïचारिश्च हनुमन्ताय नमोनम:।।
सर्वप्रथम, सतयुग की चर्चा करते हैं- इस युग में पवन पुत्र भगवान श्री शंकरजी के स्वरूप से विश्व में अवस्थित थे, तभी तो इन्हें (रूद्रावतार) शिव स्वरूप लिखा और कहा गया है, गौस्वामी श्री तुलसीदासजी ने हनुमान चालीसा में ही "शंकर सुवन केसरी नन्दन" कह कर सम्बोधित किया है।
इतना ही नहीं जब-जब भगवान शंकरजी माता उमा को रामकथा सुनाते हैं, और उस राम चरित्र में जहाँ कहीं भी हनुमानजी का चरित्र आता है, तब-तब भोलेनाथ स्वयं सावधान होकर और मन को भी समाहित करके हनुमानजी का चरित्र कहते हैं, उस की एक झलक देखियें।
सावधान पुनि मन कर शंकर।
लागे कहन कथा अति सुन्दर॥
इस चोपाई का यह प्रसंग लंका दहन का है, लंका दहन के बाद हनुमान जी महाराज प्रभु श्री राघवेन्द्र सरकार के चरणों में वन्दन करते हैं, और प्रभु उनको हृदय से लगाते हैं, तब भोलेनाथ कितने प्रसन्न हो जाते हैं, उसकी झलक उक्त चोपाई में दिखाई पड़ती हैं।
देखियें ऋष्यमूक पर्वत के मैदानी भाग में जब प्रथम वार राम और लक्ष्मण के साथ में हनुमानजी का मिलन होता है, तब प्रभु के द्वारा अपना परिचय देने पर केसरी नन्दन उनके पावन पगों में जब गिरते हैं, तो फिर भोलेनाथ गिरिजा से कह ही तो उठते हैं।
प्रभु पहिचान गहेउ पहि चरना।
से सुख उमा जाहिं नहिं वरना॥
इस प्रकार के अपने स्वरूप का वर्णन भोलेनाथ पार्वतीजी से करते हैं, अत: यह प्रमाणित है, कि श्री हनुमानजी सतयुग में शिवरूप में रहते हैं, त्रेतायुग में तो पवनपुत्र श्रीरामजी की छाया हैं, इनके बिना सम्पूर्ण चरित्र पूर्ण होता ही नहीं,
श्रीरामजी भरतजी, सीताजी, सुग्रीव, विभिषण आदि और सम्पूर्ण कपि मण्डल और कोई भी उनके ऋण से मुक्त अर्थात उऋण नहीं हो सकते, इस प्रकार त्रेतायुग में तो हनुमानजी साक्षात विराजमान है, द्वापर युग में बजरंगबली अर्जुन के रथ पर विराजित हैं, इसका बड़ा ही सुन्दर प्रसंग है।
एक बार किसी तीर्थाटन में अकस्मात ही अर्जुन का हनुमानजी से मिलन हो जाता है, और भक्त जब भक्त से मिलता है तो निश्चय ही भागवत चर्चा प्रारम्भ हो जाती है, तभी हनुमानजी से अर्जुन ने पुछा- राम और रावण के युद्घ के समय तो आप थे, हनुमानजी बोले में केवल उपस्थित ही नहीं था? किन्तु युद्घ भी कर रहा था।
तभी अर्जुन ने कहा आपके स्वामी मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीरामजी तो बड़े ही श्रेष्ठ धनुषधारी थे, फिर उन्हें समुद्र पार जाने के लिए पत्थरों का सेतू बनवाने की क्या आवश्यकता थी, यदि में वहाँ उपस्थित होता तो समुद्र पर बाणों का पुल बना देता, जिससे आपका पूरा वानर दल पार होता।
तभी हनुमानजी ने कहा असम्भव, बाणों का पुल वहाँ पर कोई काम नहीं कर पाता, हमारा यदि एक भी वानर चढ़ता तो वाणों का पुल छिन्न-भिन्न हो जाता, अर्जुन ने कहा- नहीं, देखो ये सामने सरोवर हैं, में उस पर बाणों के पुल का निर्माण करता हूँ, आप इस पर चढ़ कर सरोवर को पार कर जाओगे, यदि आपके चलने से पुल टूट जायेगा तो में अग्नि में प्रवेश कर लूँगा।
यदि नहीं टूटता है तो आपको अग्नि में प्रवेश करना पड़ेगा, हनुमानजी बोले मुझे स्वीकार है, तब अर्जुन ने अपने प्रचंड बाणों से पुल तैयार कर दिया, जब तक पुल बन कर तैयार नहीं हुआ तब तक तो हनुमानजी अपने लघु रूप में ही रहे, लेकिन पुल के बन जाने पर हनुमानजी महाराज ने अपना रूप भी उसी समय का सा कर लिया, जैसा तुलसीदासजी ने राम चरित मानस में वर्णन किया है।
कनक भूदरा कार शरीरा।
समय भयंकर अति बल वीरा॥
रामजी का स्मरण करके हनुमानजी महाराज उस बाणों के पुल पर चढ़ गयें, पहला पग रखते ही पुल सारा का सारा डगमगाने लगा, दूसरा पैर रखते ही चरमराया, किन्तु पुल टूटा नहीं, और तीसरा पैर रखते ही पूरा पुल ध्वस्त होकर सरोवर में समा गया, तभी हनुमानजी महाराज पुल से नीचे उतर आयें और अर्जुन से कहा कि अग्नि तैयार करो।
अग्नि प्रज्वलित हुई, जैसे ही अर्जुन अग्रि में कूदने चले वैसे लीला पुरूषोत्तम श्रीकृष्ण प्रकट हो गयें और बोले ठहरो, तभी अर्जुन और हनुमानजी ने प्रणाम किया, इस पर प्रभु ने कहा क्या वाद विवाद चल रहा है? बताओ, इस पर अर्जुन ने सारा प्रसंग सुनाया, तब अर्जुन से भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा कि यह सब मेरी इच्छा से ही हुआ है।
यह सुनकर अर्जुन ने क्षमा मांगी, मैं तो बड़ा अपराधी निकला, मेरा ये अपराध कैसे दूर हो तब दयालु प्रभु ने कहा ये सब मेरी इच्छा से हुआ है, आप मन खिन्न मत करो, मेरी आज्ञा है, कि हनुमानजी अर्जुन के रथ और ध्वजा पर स्थान ग्रहण करें, इसलिये द्वापर में हनुमानजी महाराज अर्जुन के ध्वजा पर स्थिति थे, ये द्वापर का प्रसंग रहा।
यत्र-यत्र रघुनाथ कीर्तन तत्र कृत मस्तकान्जलिम्।
वाष्प वारि परिपूर्ण लोचनं मारूतिं नमत राक्षसान्तकम्।।
कलियुग में जहाँ-जहाँ भगवान श्रीरामजी की कथा कीर्तन होते हैं, वहाँ हनुमान जी गुप्त रूप में विराजमान रहते हैं, हनुमानजी महाराज कलियुग में गन्धमादन पर्वत पर निवास करते हैं ऐसा श्रीमद भागवत में वर्णन आता है, सीताजी के वचनों के अनुसार-
अजर अमर गुन निधि सुत होऊ।
करहु बहुत रघुनायक छोऊ।।
अत्यन्त बलशाली, परम पराक्रमी, जितेन्द्रिय, ज्ञानियों में आग्रगण्य तथा भगवान् राम के अनन्य-भक्त श्रीहनुमानजी का जीवन समाज के लिये सदा से प्ररेणादायक रहा है, वे वीरता की साक्षात् प्रतिमा है, एवम शक्ति तथा बल-पराक्रम की जीवन्त मूर्ति, भारतीय मल्ल-विद्या के यही आराध्य है, आप कभी अखाड़ों में जायें तो वहाँ आपको किसी दीवार के आले में या छोटे -मोटे मन्दिर में प्रतिष्ठिïत महावीर की प्रतिमा अवश्य मिलेगी, उनके चरणों का स्पर्श और नाम स्मरण करके ही पहलवान अपना कार्य शुरू करते हैं।
भाई-बहनों, हनुमानजी महाराज परम कृपालु भक्त की पुकार पर सद्य प्रभावेण रक्षा करते है, तल्लीनता से आर्त भाव से पुकारते ही भक्त को अपनी उपस्तिथि का विश्वाश इस घोर कलयुग मेँ भी कराते है, मेरे जीवन के अनुभव से मै ये निवेदन करबद्ध हो कर कर रहा हूँ, भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैँ- "संशय आत्मा विनश्यति" अपनी बुद्धि बल को बजरँगबली के चरणों मेँ अर्पित कर प्रेम से बोलो- जय श्री रामजी!!
जय श्री हनुमानजी!