आम आदमी से जुड़े मुद्दों जैसे बेहतर आधारभूत सुविधाएँ, सामाजिक न्याय, सबके लिए शिक्षा और रोज़गार, भ्रष्टाचार से मुक्ति , शासन प्रशासन में पारदर्शिता इत्यादि से देश के हर नागरिक चाहे वो किसी भी धर्म, जाति, लिंग या क्षेत्र का हो को जूझना ही पड़ता है. लोकतान्त्रिक देश में सबसे महत्त्वपूर्ण है चुनाव के आधार पर आम लोगों की सत्ता में भागीदारी. राजनीति ने समाज की दशा और दिशा के निर्देशन का भी काम किया है. पिछले दशक में एक के बाद एकभ्रष्टाचार के खुलासों, साम्प्रदायिक और भाई-भतीजावाद पर आधारित राजनीति के कारण बनी परिस्थितियों ने अपनी ही बनाई जनतांत्रिक व्यवस्था, अपने ही वोट से चुने हुए दलों के नेताओं और जनप्रतिनिधियों के अत्यंत अस्वीकार्य आचरण को लेकर मर्माहत हैं और मोहभंग के दौर से गुजर रहे हैं.
आजादी के 65 बाद राजनीति के इतिहास में एक नया मोढ़ लोकपाल कानून के लिए जंतर-मंतर पर दिल्ली में अन्ना हज़ारे के आंदोलन से आया जब भष्टाचार से त्रस्त आम जनमानस को ढाल बना कर के एक नयी राजनीतिक पार्टी का जन्म हुआ, गैर पारम्परिक तरीकों तथा नैतिक मूल्यों का इस्तेमाल करके इस नयी पार्टी ने राजनीती में धुरंधर कहे जाने वाले सियासी दलों के पुराने नजरिये को न सिर्फ बदला बल्कि उन्हें भी इस नजरिये पर मंथन करने को मजबूर कर दिया. खैर भले ही नैतिक मूल्यों की ये राजनीती उस नए राजनीतिक दल का अपने को राजनीति के केंद्र में लाने का एक पैतरा क्यों न रहा हो लेकिन इसने राजनीति के पुराने महारथियों को झकझोर दिया और राजनीति में “रूल्स ऑफ़ द गेम” को ही चेंज कर दिया है.
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