शनिवार, 25 दिसंबर 2021

 दूध में दरार पड़ गई... 

ख़ून क्यों सफ़ेद हो गया?

भेद में अभेद खो गया।

बंट गये शहीद, गीत कट गए,

कलेजे में कटार दड़ गई।

दूध में दरार पड़ गई।


खेतों में बारूदी गंध,

टूट गये नानक के छंद

सतलुज सहम उठी, व्यथित सी बितस्ता है।

वसंत से बहार झड़ गई

दूध में दरार पड़ गई।


अपनी ही छाया से बैर,

गले लगने लगे हैं ग़ैर,

ख़ुदकुशी का रास्ता, तुम्हें वतन का वास्ता।

बात बनाएं, बिगड़ गई।

दूध में दरार पड़ गई।

 

एक बरस बीत गया...

झुलासाता जेठ मास 

शरद चांदनी उदास 

सिसकी भरते सावन का 

अंतर्घट रीत गया 

एक बरस बीत गया 

 

सीकचों मे सिमटा जग 

किंतु विकल प्राण विहग 

धरती से अम्बर तक 

गूंज मुक्ति गीत गया 

एक बरस बीत गया 

 

पथ निहारते नयन 

गिनते दिन पल छिन 

लौट कभी आएगा 

मन का जो मीत गया 

एक बरस बीत गया

 

क्या खोया, क्या पाया जग में...

क्या खोया, क्या पाया जग में

मिलते और बिछुड़ते मग में

मुझे किसी से नहीं शिकायत

यद्यपि छला गया पग-पग में

एक दृष्टि बीती पर डालें, यादों की पोटली टटोलें!


पृथ्वी लाखों वर्ष पुरानी

जीवन एक अनन्त कहानी

पर तन की अपनी सीमाएं

यद्यपि सौ शरदों की वाणी

इतना काफ़ी है अंतिम दस्तक पर, खुद दरवाज़ा खोलें!


जन्म-मरण अविरत फेरा

जीवन बंजारों का डेरा

आज यहां, कल कहां कूच है

कौन जानता किधर सवेरा

अंधियारा आकाश असीमित,प्राणों के पंखों को तौलें!

अपने ही मन से कुछ बोलें!

मैंने जन्म नहीं मांगा था...

मैंने जन्म नहीं मांगा था, 

किन्तु मरण की मांग करुंगा। 


जाने कितनी बार जिया हूं, 

जाने कितनी बार मरा हूं। 

जन्म मरण के फेरे से मैं, 

इतना पहले नहीं डरा हूं। 


अन्तहीन अंधियार ज्योति की, 

कब तक और तलाश करूंगा। 

मैंने जन्म नहीं मांगा था, 

किन्तु मरण की मांग करूंगा। 


बचपन, यौवन और बुढ़ापा, 

कुछ दशकों में ख़त्म कहानी। 

फिर-फिर जीना, फिर-फिर मरना, 

यह मजबूरी या मनमानी? 


पूर्व जन्म के पूर्व बसी— 

दुनिया का द्वारचार करूंगा। 

मैंने जन्म नहीं मांगा था, 

किन्तु मरण की मांग करूंगा।

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