शनिवार, 25 दिसंबर 2021

 .                               "मित्रता"


          इन्द्र से वरदान में प्राप्त एक अमोघ शक्ति कर्ण के पास थी, इन्द्र का कहा हुआ था कि 'इस शक्ति को तू प्राण संकट में पड़कर एक बार जिस पर भी छोड़ेगा, उसी की मृत्यु हो जायगी, परंतु एक बार से अधिक इसका प्रयोग नहीं हो सकेगा।' कर्ण ने वह शक्ति अर्जुन को मारने के लिये रख छोड़ी थी। उसे रोज दुर्योधनादि कहते कि तुम उस शक्ति का प्रयोग कर अर्जुन को मार क्यों नहीं देते। वह कहता कि आज अर्जुन के सामने आते ही उसे जरूर मारूंगा, पर रण में अर्जुन के सामने आने पर कर्ण इस बात को भूल जाता और उसका प्रयोग न करता। कारण यही था कि अर्जुन का रथ सामने आते ही कर्ण को पहले भगवान् के दर्शन होते । भगवान् उसे मोहित कर लेते जिससे वह शक्ति छोड़ना भूल जाता। अर्जुन को इस शक्ति के सम्बन्ध में कोई पता नहीं था, परंतु भगवान् सारी बातें जानते थे और वे हर तरह से अर्जुन को बचाने और जिताने के लिये सचेष्ट थे। उन्होंने स्वयं ही सात्यकि से कहा था-


        अहमेव     तु     राधेयं     मोहयामि     युधांवर।

        ततो    नावासृजच्छक्तिं    पाण्डवे    श्वेतवाहने॥

        फाल्गुनस्य  हि सा  मृत्युरिति चिन्तयतोऽनिशम्।

        न  निद्रा  न  च  मे  हर्षों   मनसोऽस्ति  युधांवर॥

        न  पिता  न  च  में  माता  न  यूयं   भ्रातरस्तथा।

        न  च  प्राणस्तथा   रक्ष्या   यथा   बीभत्सुराहवे॥

        त्रैलोक्यरान्याद् यत्किञ्चिद् भवेदन्यत्सुदुर्लभम्।

        नेच्छेयं  सात्वताहं  तद् विना  पार्थं धनञ्जयम्॥

        अतः  प्रहर्षः   सुमहान्   युयुधानाद्य   मेऽभवत्।

        मृतं   प्रत्यागतमिव   दृष्ट्वा   पार्थं  धनञ्जयम्॥

                         (द्रोणपर्व १८२/४०-४१, ४३-४५)


          ‘सात्यकि! मैंने ही कर्ण को मोहित कर रखा था, जिससे वह श्वेत घोड़ों वाले अर्जुन को इन्द्र की दी हुई शक्ति से नहीं मार सका था। इस शक्ति के निमित्त कर्ण को अर्जुन का काल समझने के कारण मुझे रात को नींद नहीं आती थी और कभी मन प्रसन्न नहीं रहता था। मैं अपने माता-पिता की, तुम लोगों की, भाइयों की और अपने प्राणों की रक्षा करना भी उतना आवश्यक नहीं समझता, जितना रण में अर्जुन की रक्षा करना समझता हूँ। सात्यकि! तीनों लोकों के राज्यों की अपेक्षा भी कोई वस्तु अधिक दुर्लभ हो तो मैं उसे अर्जुन को छोड़कर नहीं चाहता। अतः युयुधान! आज अर्जुन मानो मरकर लौट आये हों, इस प्रकार इन्हें जीता-जागता देख मुझे बड़ा भारी हर्ष हो रहा है।' धन्य हैं।

          इसीलिये भगवान् ने भीम पुत्र घटोत्कच को रात के समय युद्धार्थ भेजा। घटोत्कच ने अपनी राक्षसी माया से कौरव सेना का संहार करते-करते कर्ण का नाकों दम कर दिया, दुर्योधन आदि सभी घबरा गये। सभी ने खिन्न मन से कर्ण को पुकार कर कहा कि बस आधी रात के समय यह राक्षस हम सबको मार ही डालेगा, फिर भीम-अर्जुन हमारा क्या करेंगे। अतएव तुम इन्द्र की शक्ति का प्रयोग कर इसे पहले मारो, जिससे हम सबके प्राण बचें। आखिर कर्ण को वह शक्ति घटोत्कच पर छोड़नी पड़ी। शक्ति लगते ही घटोत्कच मर गया। वीर-पुत्र घटोत्कच की मृत्यु देखकर सभी पाण्डवों की आँखों में आँसू भर आये, परंतु श्रीकृष्ण को बड़ी प्रसन्नता हुई, वे हर्ष से प्रमत्त-से होकर बार-बार अर्जुन को हृदय से लगाने लगे। अर्जुन ने कहा-'भगवन् ! यह क्या रहस्य है ? हम सबका तो धीरज छूटा जा रहा है और आप हँस रहे हैं ?' तब श्रीकृष्ण ने सारा भेद बताकर कहा कि 'प्रिय पार्थ ! इन्द्र ने तेरे हित के लिये कर्ण से कवच-कुण्डल ले लिये थे। बदले में उसे एक शक्ति दी थी, वह शक्ति कर्ण ने तेरे मारने के लिये रख छोड़ी थी। उस शक्ति के कर्ण के पास रहते मैं सदा तुझे मरा ही समझता था। मैं सत्य की शपथ खाकर कहता हूँ कि आज भी, शक्ति न रहने पर भी, कर्ण को तेरे सिवा दूसरा कोई नहीं मार सकता। वह ब्राह्मणों का भक्त, सत्यवादी, तपस्वी, व्रताचारी और शत्रुओं पर भी दया करने वाला है। मैंने घटोत्कच को इसी उद्देश्य से भेजा था। अर्जुन ! तेरे हित के लिये ही मैं यह सब किया करता हूँ। चेदिराज शिशुपाल, भील एकलव्य, जरासन्ध आदि को विविध कौशलों से मैंने इसीलिये मारा था, मरवाया था, जिससे वे महाभारत-समर में कौरव का पक्ष न ले सकें। वे आज जीवित होते तो तेरी विजय बहुत ही कठिन होती। फिर यह घटोत्कच तो ब्राह्मणों का द्वेषी, यज्ञद्वेषी, धर्म का लोप करनेवाला और पापी था। इसे तो मैं ही मार डालता, परंतु तुम लोगों को बुरा लगेगा, इसी आशंका से नहीं मारा। आज मैंने ही इसका नाश करवाया है-


          ये हि धर्मस्य  लोसारो वध्यास्ते  मम पाण्डव।

          धर्मसंस्थापनार्थं   हि  प्रतिज्ञेषा  मया  कृ ता॥

          ब्रह्म सत्यं दमः शौचं धर्मो ह्रीः श्रीधृतिः क्षमा।

          यत्र   तत्र   रमे   नित्यमहं   सत्येन   ते  शपे॥

                                (द्रोणपर्व १८१/२८,२९,३०)


          ‘जो पुरुष धर्म का नाश करता है, मैं उसका वध कर डालता हूँ। धर्म की स्थापना करना ही मेरी प्रतिज्ञा है। मैं यह शपथ खाकर कहता हूँ कि जहाँ ब्रह्म भाव, सत्य, इन्द्रियदमन, शौच, धर्म, (बुरे कर्मोमें) लज्जा, श्री, धैर्य और क्षमा हैं, वहाँ मैं नित्य निवास करता हूँ।'

          अभिप्राय यह है कि तुम्हारे अंदर ये सब गुण हैं, इसीलिये मैं तुम्हारे साथ हूँ और इसीलिये मैंने कौरवों का पक्ष त्याग रखा है, नहीं तो मेरे लिये सभी एक-से हैं। फिर तुम घटोत्कच के लिये शोक क्यों करते हो ? अपना पुत्र भी हो तो क्या हुआ, जो पापी है, वह सर्वथा त्याज्य है। इस प्रकार मित्र अर्जुन के प्राण और धर्म की भगवान् ने रक्षा की।

      "जय जय श्री राधे"।🙏🙏

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