शनिवार, 25 दिसंबर 2021

 .                            "अमूल्य दान"


         कुरुक्षेत्र युद्ध में विजय पाने की खुशी में पाण्डवों ने राजसूय यज्ञ किया। दूर-दूर से आए हजारों लोगों को बड़े पैमाने पर दान दिया गया। यज्ञ समाप्त होने पर चारों तरफ पाण्डवों की जय-जयकार हो रही थी। पांचो पाण्डव तथा श्रीकृष्ण यज्ञ की सफलता की चर्चा में मग्न थे। पाण्डव इस बात से संतुष्ट थे कि इस राजसूय यज्ञ का फल उन्हें अवश्य प्राप्त होगा।

         तभी एक नेवला जिसका आधा शरीर सुनहरा और आधा भूरा था, राजमहल के भण्डारगृह से बाहर निकला और यज्ञभूमि पर लोटने लगा। फिर वापस भण्डार गृह में चला गया। यह प्रक्रिया उसने चार-पांच बार दोहराई। इस विलक्षण नेवले की विचित्र हरकतें देख कर पांडवों को बड़ा आश्चर्य हुआ। 

         धर्मराज युधिष्ठिर पशु-पक्षियों की भाषा जानते थे। उन्होंने नेवले से कहा, यह तुम क्या कर रहे हो ? तुम्हें किस वस्तु की तलाश है ? नेवले ने आदरभाव से युधिष्ठिर को प्रणाम किया और बोला, हे राजन, आपने जो महान यज्ञ सम्पन्न किया है, उससे आपकी कीर्ति दसों दिशाओं में व्याप्त हो गई है। इस यज्ञ से आपको जिस पुण्य की प्राप्ति होगी, उसका कोई अंत नहीं है। मैं तो इस पुण्य के अनन्त सागर में से पुण्य का एक छोटा-सा कण अपने लिए ढूंढ रहा हूँ। लोग झूठ कहते हैं कि इससे वैभवशाली यज्ञ कभी नहीं हुआ, पर यह यज्ञ तो कुछ भी नहीं है। यज्ञ तो वह था जहाँ लोटने से मेरा आधा शरीर सुनहरा हो गया था। युधिष्ठिर के उस यज्ञ के बारे में पूछने पर नेवले ने कहा,

         एक बार भयानक अकाल पड़ा। लोग भूख और प्यास के मारे प्राण त्यागने लगे। चारों ओर त्राहि-त्राहि मची हुई थी। उस समय एक गाँव में एक गरीब ब्राह्मण अपनी पत्नी, पुत्र और पुत्रवधू के साथ रहता था। कई दिन तक ब्राह्मण परिवार में किसी को अन्न नहीं मिला। 

         एक दिन वह ब्राह्मण कहीं से थोड़ा-सा सत्तू माँगकर लाया और उसमें जल मिलाकर उसके चार गोल लड्डू जैसे बना लिये। जैसे ही ब्राह्मण अपने परिवार सहित उस सत्तू के लड्डूओं को खाने लगा, उसी समय एक अतिथि ब्राह्मण ने दरवाजे पर आकर कहा, मैं छ: दिनों से भूखा हूँ कृपया मेरी क्षुधा शान्त करें।

         अतिथि को भगवान् का रूप मानकर पहले वाले ब्राह्मण ने अपने हिस्से का सत्तू अतिथि को दे दिया, मगर उसे खाने के बाद भी अतिथि की भूख नहीं मिटी। तब ब्राह्मणी ने अपने हिस्से का सत्तू अतिथि को दे दिया इससे भी उसका पेट नहीं भरा तो बेटे और पुत्रवधू ने भी अपने-अपने हिस्से का सत्तू अतिथि को दे दिया। 

         अतिथि ब्राह्मण उस सत्तू को खाकर तृप्त हो गया और उसी स्थान पर हाथ धोकर चला गया। उस रात भी ब्राह्मण परिवार भूखा ही रह गया और कई दिन की भूख से उन चारों का प्राणान्त हो गया।

         जहाँ अतिथि ब्राह्मण ने हाथ धोए थे वहाँ सत्तू के कुछ कण जमीन पर गिरे पड़े थे। मैं (नेवला) उन कणों पर लोटने लगा तो जहाँ तक मेरे शरीर से उन कणों का स्पर्श हुआ, मेरा शरीर सुनहरा हो गया। मैं समझ नहीं पा रहा था कि यह सब कैसे हो गया ? 

         मैं एक ऋषि के पास पहुँचा और उन्हें सारा वृतान्त सुनाकर यह जानने की जिज्ञासा प्रकट की कि मेरे शरीर का आधा भाग सोने का कैसे हो गया ? ऋषि अपने ज्ञान के बल पर पूरी घटना जान गए थे और बोले, जिस जगह तुम लेटे हुए थे, उस स्थान पर सत्तू का थोड़ा-सा अंश बिखरा हुआ था। वह चमत्कारिक सत्तू तुम्हारे शरीर के जिस-जिस भाग पर लगा वह भाग स्वर्णिम हो गया है।

         इस पर मैंने ऋषि से कहा, कृपया मेरे शरीर के शेष भाग को भी सोने का बनाने हेतु कोई उपाय बताइए। ऋषि ने कहा, उस परिवार ने धर्म और मानवता के लिए अपने प्राणों का बलिदान दिया है। यही कारण है कि उसके बचे हुए अन्न में इतना प्रभाव उत्पन्न हो गया कि उसके स्पर्शमात्र से तुम्हारा आधा शरीर सोने का हो गया। भविष्य में यदि कोई व्यक्ति उस परिवार की भांति ही धर्मपूर्ण कार्य करेगा तो उसके बचे हुए अन्न के प्रभाव से तुम्हारा शेष शरीर भी स्वर्णिम हो जाएगा। 

         तब से मैं सारी दुनिया में घूमता फिरता हूँ कि वैसा ही यज्ञ कहीं और हो, लेकिन वैसा कहीं देखने को नहीं मिला इसलिए मेरा आधा शरीर आज तक भूरा ही रह गया है।

         जब मैंने आपके राजसूय यज्ञ के बारे में सुना, तो सोचा, आपने इस यज्ञ में अपार सम्पदा निर्धनों को दान की है और लाखों भूखों को भोजन कराया है, उसके प्रताप से मेरा शेष आधा शरीर भी सोने का हो जाएगा। यह सोचकर मैं बार-बार यज्ञभूमि में आकर धरती पर लोट रहा था किंतु मेरा शरीर तो पूर्व की ही भांति है। नेवले की बात सुनकर युधिष्ठिर लज्जित हो गए।

         श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को जब इस प्रकार चिंतामग्न देखा तो बोले, यह सत्य है कि आपका यज्ञ अपने में अद्वितीय था, जिसमें आप लोगो ने असंख्य भूखे व्यक्तियों की भूख शांत की, किन्तु नि:संदेह उस परिवार का दान आपके यज्ञ से बहुत बड़ा था क्योंकि उन लोगों ने उस स्थिति में दान दिया, जब उनके पास कुछ नहीं था। अपने प्राणों को संकट में डालकर भी उस परिवार ने अपने पास उपलब्ध समस्त सामग्री उस अज्ञात अतिथि की सेवा में अर्पित कर दी। आपके पास बहुत कुछ होते हुए भी आपने उसमें से कुछ ही भाग दान किया। अतः आपका दान उस परिवार के अमूल्य दान की तुलना में पासंग भर भी नहीं है।

         श्रीकृष्ण की बात सुनकर सभी पांडवों को समझ में आ गया कि दान, यज्ञ, तप आदि में आडम्बर होने से कोई फल प्राप्त नहीं होता है। दान आदि कार्य सदैव ईमानदारी के पैसे से ही करने चाहिए।

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       "जय जय श्री राधे"

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