गुरुवार, 25 अक्तूबर 2018

अमृतसर में  रावण पुतला दहन के दौरान  हुए  रेल दुर्घटना में  सैकड़ों लोगों के मारे जाने पर  हरिवंशराय बच्चन की लिखी यह कविता मुझे आज के दौर में प्रासंगिक लगी।


ना दिवाली होती, और ना पठाखे बजते

ना ईद की अलामत, ना बकरे शहीद होते
तू भी इन्सान होता, मैं भी इन्सान होता,

…….काश कोई धर्म ना होता....

…….काश कोई मजहब ना होता....
ना अर्ध देते, ना स्नान होता

ना मुर्दे बहाए जाते, ना विसर्जन होता
जब भी प्यास लगती, नदीओं का पानी पीते

पेड़ों की छाव होती, नदीओं का गर्जन होता
ना भगवानों की लीला होती, ना अवतारों

का नाटक होता

ना देशों की सीमा होती , ना दिलों का

फाटक होता
ना कोई झुठा काजी होता, ना लफंगा साधु होता

ईन्सानीयत के दरबार मे, सबका भला होता
तू भी इन्सान होता, मैं भी इन्सान होता,

…….काश कोई धर्म ना होता.....

…….काश कोई मजहब ना होता....
कोई मस्जिद ना होती, कोई मंदिर ना होता

कोई दलित ना होता, कोई काफ़िर ना

होता
कोई बेबस ना होता, कोई बेघर ना होता

किसी के दर्द से कोई बेखबर ना होता
ना ही गीता होती , और ना कुरान होती,

ना ही अल्लाह होता, ना भगवान होता
तुझको जो जख्म होता, मेरा दिल तड़पता.

ना मैं हिन्दू होता, ना तू भी मुसलमान होता
तू भी इन्सान होता, मैं भी इन्सान होता।
*हरिवंशराय बच्चन*

शनिवार, 6 अक्तूबर 2018

प्रतिज्ञा

युग-नेत्र उनके जो अभी थे पूर्ण जल की धार-से,
अब रोष के मारे हुए, वे दहकते अंगार-से ।
निश्चय अरुणिमा-मित्त अनल की जल उठी वह ज्वाल सी,
तब तो दृगों का जल गया शोकाश्रु जल तत्काल ही।

साक्षी रहे संसार करता हूँ प्रतिज्ञा पार्थ मैं,
पूरा करुंगा कार्य सब कथानुसार यथार्थ मैं।
जो एक बालक को कपट से मार हँसते हैँ अभी,
वे शत्रु सत्वर शोक-सागर-मग्न दीखेंगे सभी।

अभिमन्यु-धन के निधन से कारण हुआ जो मूल है,
इससे हमारे हत हृदय को, हो रहा जो शूल है,
उस खल जयद्रथ को जगत में मृत्यु ही अब सार है,
उन्मुक्त बस उसके लिये रौ'र'व नरक का द्वार है।

उपयुक्त उस खल को न यद्यपि मृत्यु का भी दंड है,
पर मृत्यु से बढ़कर न जग में दण्ड और प्रचंड है ।
अतएव कल उस नीच को रण-मध्य जो मारूँ न मैं,
तो सत्य कहता हूँ कभी शस्त्रास्त्र फिर धारूँ न मैं।

अथवा अधिक कहना वृथा है, पार्थ का प्रण है यही,
साक्षी रहे सुन ये वचन रवि, शशि, अनल, अंबर, मही।
सूर्यास्त से पहले न जो मैं कल जयद्रथ-वध करूँ,
तो शपथ करता हूँ स्वयं मैं ही अनल में जल मरूँ।

नया समाज-2



आज आ रहा है लोकराज !

ध्वस्त सर्व जीर्ण-शीर्ण साज़,

धूल चूमते अनेक ताज !

आ रही मनुष्यता नवीन,

दानवी प्रवृत्तियाँ विलीन !

अंधकार हो रहा है दूर;

खंड-खंड और चूर-चूर !

रश्मियों ने भर दिया प्रकाश,

ज़िन्दगी को मिल गयी है आश।

चल पड़ा है कारवाँ सप्राण

शक्तिवान, संगठित, महान !

रेत-सा यह उड़ रहा विरोध,

मार्ग हो रहा सरल सुबोध;

बढ़ रहा प्रबल प्रगति-प्रसार,

बिजलियों सदृश चमक अपार !

देख काल दब गया विशाल,

आग जल उठी है लाल-लाल !

उठ रहा नया गरज पहाड़,

मध्य जो वह खा गया पछाड़ !

पिस गया गला-सड़ा पुराण,

बन रहा नवीन प्राणवान !

गूँजता विहान-नव्य-गान;

मुक्त औ' विरामहीन तान !

नया समाज

जाति-पांति के बंधन तोड़े
अपनेपन की कड़ियाँ जोड़े,
इस धरती के हर मानव का
मानवता से नाता जोड़े
एक दूसरे के दुःख सुख में
मिलकर बैठे हाथ बटाए
आओं, नया समाज बनाएं ||
इस माटी का कण कण चंदन
इसे करे शत शत वंदन
नई रोशनी की किरणें बन
आज सजा दे हर आंगन |
मिल जुलकर कर आगे बढ़ने का
सबके मन में भाव जगाएं
आओं, नया समाज बनाएं
श्रम को जीवन मंत्र बनाएं
उंच नीच का भेद मिटाएं
भारत माता के हम सपूत बन
नव जीवन की अलख जगाएं
धरा सभी की, गगन सभी का
आओं, नया समाज बनाएं ||

शुक्रवार, 5 अक्तूबर 2018

शिक्षा हमारी जीवन की अमूल्य धरोहर है।

हमारे पास हमारी अनमोल धरोहर है हमारी संस्कृति, हमारी शिक्षा, हमारी परंपराएं, हमारे खेल, हमारे ग्रंथ, हमारा इतिहास और हमारी वास्तुकला. लेकिन आज हम राजनीति के चक्कर में अपने अस्तित्व को पहचान ही नहीं पा रहे हैं. हम जो दुनिया को देते आए हैं, वह आज हम अपने देश को ही नहीं दे पा रहे हैं. ये गंभीर चिंता एवं चिंतन दोनों का विषय है. यदि हमें अपना पुराना गौरव फिर से प्राप्‍त करना है, भारत को पुन: विश्‍वगुरु के रूप में प्रतिष्ठित करना है, तो कुछ चीजों को बदलना बहुत जरूरी है.

सबसे पहले शिक्षा पद्धति और पाठ्यक्रम में बदलाव बहुत आवश्‍यक है. हमारे देश की प्रणालियां सर्वश्रेष्‍ठ रही हैं, चाहे वह शासन-प्रणाली हो, शिक्षा-प्रणाली हो, निर्माण-प्रणाली हो या फिर अन्य सृजनात्मक प्रणालियां. इन सभी में भारत ने सर्वोच्च उदाहरण प्रस्तुत किए हैं. व्हेनसांग, फाह्यान जैसे विदेशी छात्रों ने यहां आकर तक्षशिला और नालंदा जैसी शिक्षण संस्‍थाओं में शिक्षा प्राप्त की है. ऐसे और भी कई उदाहरण हैं.

जो मर्म, चिंतन, दर्द, संवेदनाएं, सृजन, दर्शन, भावनाएं, आस्था की परंपराएं और सहनशीलता की पराकाष्ठा हमारे देश की शिक्षा और साहित्य में रहे हैं, अन्यत्र कहीं भी नहीं पाए जाते. दुनियाभर में हमारी संस्कृति, हमारे ग्रन्थों, हमारे योग, हमारी परम्पराओं और हमारी धरोहरों पर रिसर्च हो रही है और हम उन्हें अपनाकर सहेज भी नहीं पा रहे हैं.

दुनिया अब पर्यावरण संरक्षण सीख रही है, दुनियाभर में पर्यावरण सम्मेलन हो रहे हैं, लेकिन हमारे यहां तो पेड़ों, नदियों व अन्य जलस्रोतों की पूजा की परंपरा प्राचीन समय से चली आ रही है. पीपल, बरगद, आंवला, अर्जुन, नीम जैसे पेड़ों को तो देवता ही माना गया है. दुनिया अब बताती है कि इनमें अधिक आक्सीजन देने और प्रतिरोधी क्षमता विकसित करने के गुण हैं.  हमारी शिक्षा तो यह सब जमाने से कहती आ रही है. हमारी शिक्षा वो सब कुछ सिखाती रही है, जिससे व्यक्ति का सम्पूर्ण एवं समग्र विकास होता है.

आज हम गंगा, यमुना, गोदावरी, नर्मदा, शिप्रा जैसी महान और विशाल नदियों की सफाई की बात कर रहे हैं. हमारे पूर्वजों ने तो इसे पूजा का ही अंग बना लिया था और दोहों तथा चौपाइयों, छंदों, वेदों और पुराणों में स्तुतियां लिख कर गए ताकि लोग पानी को गन्दा करने के पहले सौ बार सोचें.

हमारी न्याय व्यवस्था सबसे मजदूत रही है, लेकिन हम अंग्रेजों की बनाई आईपीसी को आज तक ढो रहे हैं, बदलाव नहीं कर पा रहे हैं, जिसकी महती आवश्‍यकता है. हमें न्याय व्यवस्था सुधारने के लिए शिक्षा व्यवस्था सुधारने की भी महती आवश्‍यकता है.

जिस दिन से हमारी शिक्षा संवेदनात्मक, दार्शनिक, बौद्धिक और खेल प्रतिस्पर्धी हो जाएगी, उसी दिन से बदलाव दिखने प्रारम्भ हो जाएंगे. आज हम दूसरे के दुःख-दर्द, विकास, भलाई को नहीं समझते, बल्कि स्वकेन्द्रित होते जा रहे हैं. उसका मुख्य कारण हमारी शिक्षा पद्धति का ही दोष है.

हमारे यहां की तकनीकी शिक्षा भी उत्कृष्ट कोटि की रही है. इसके उदाहरण रणथम्बौर, जयपुर, उदयपुर, खजुराहो, धुबेला, लखनऊ आदि स्‍थानों पर आज भी मौजूद हैं. खजुराहो की वास्तुकला, वहां वेदों की ऋचाओं पर आधारित आकृतियां हमारी शिक्षा पद्धति के ही तो उदाहरण हैं.

हमें अपनी प्रतिष्‍ठा पुन: प्राप्त करने के लिए बदलाव का प्रयास करना ही होगा और इसके लिए शिक्षा पद्धति में बदलाव लाना सबसे ज्यादा जरूरी है. तभी विकास भी संभव है वरना स्वार्थपरक राजनीति तो अपने पैर पसारकर सब कुछ पसार ही रही है. मातृ देवो भवः, पितृ देवो भवः - इस पंक्ति को बोलते हुए हमारा शीष श्रद्धा से झुक जाता है और सीना गर्व से तन जाता है । यह पंक्ति सच भी है जिस प्रकार ईश्वर अदृश्य रहकर हमारे माता पिता की भूमिका निभाता है उसी प्रकार माता पिता हमारे दृश्य, साक्षात ईश्वर है। इसीलिए तो भगवान गणेश ने ब्रह्माण्ड की परिक्रमा करने की बजाय अपने माता पिता शिव- पार्वती की परिक्रमा करके प्रथम पूज्य होने का अधिकार हांसिल कर लिया था, किन्तु आज के इस भौतिक वाद (कलयुग) में बढ़ते एकल परिवार के सिद्धान्त तथा आने वाली पीढ़ी की सोच में परिवर्तन के चलते ऐसा देखने को नही मिल रहा है। कुछ सुसंस्कारित परिवारों को छोड़ दें तो आज अधिकांश परिवारों में बुजुर्गों को भगवान तो क्या, इंसान का दर्जा भी नही दिया जा रहा है। किसी जमाने में जिनकी आज्ञा के बगैर घर का कोई कार्य और निर्णय नही होता था। जो परिवार में सर्वोपरि थे। और परिवार की शान समझे जाते थे आज उपेक्षित, बेसहारा और दयनीय जीवन जीने को मजबूर नजर आ रहे है यहां तक कि तथा कथित पढ़े लिखे लोग जो अपने आप को आधुनिक मानते है , अपने आपको परिवार की सीमाओं में बंधा हुआ स्वीकार नही करते हैं और सीमाऐं तोड़ने के कारण पशुवत व्यवहार करना सीख गये हैं वे अपने माता पिता व अन्य बुजुर्गों को ’’रूढ़ीवादी’’, ’’सनके हुये’’ तथा ’’पागल हो गये ये तो’’ तक का सम्बोधन देने लगे है।
     क्या आप नही जानते मां बाप ने आपके लिए क्या-क्या किया है या जानते हुये भी अनजान बनना चाहते हैं ? मैं आपकी याददाष्त इस लेख के माध्यम से लौटाने की कोशिश कर रहा हॅंू।
     वो आपकी मां ही है जिसने नौ माह तक अपने खून के एक एक कतरे को अपने शरीर से अलग करके आपका शरीर बनाया है और स्वयं गीले मे सोकर आपको सूखे में सुलाया है, इन्ही मां-बाप ने अपना खून पसीना एक करके आपको पढ़ाया-लिखाया, पालन-पोषण किया और आपकी छोटी से छोटी एवं बड़ी से बड़ी सभी जरूरतों को अपनी खुशियों, अरमानों का गला घोंट कर पूरा किया है। कुछ मां-बाप तो अपने बच्चे के उज्जवल भविष्य के खातिर अपने भोजन खर्च से कटौती कर करके उच्च शिक्षा के लिए बच्चों को विदेश भेजते रहे। उन्हंे नही मालूम था कि बच्चे अच्छा कैरियर हासिल करने के बाद उनके पास तक नही आना चाहंेगे। वे मां-बाप तो अपना यह दर्द किसी को बता भी नही पाते। यह आपके पिता ही है जिन्हांेने अपनी पैसा-पैसा करके जोड़ी जमा पूंजी और भविष्य निधि आपके मात्र एक बार कहने पर आप पर खर्च कर दी। और आज स्वयं पैसे-पैसे के लिए मोहताज हो गये। तिनका-तिनका जोड़कर आपके लिए आशियाना बनाया और आज आप नये आशियाने के लिऐ उन पर भावनाओं से लबालेज उनके आशियाने को बेच देने का दवाब बना रहे है, उनके तैयार नही होने पर उन्हे अकेला छोड़कर अपनी इच्छा की जगह जाकर उन्हे दण्ड दे रहे है। आपने कभी सोचा है कि मां-बाप ने यह सब क्यों किया।
    आपको मालूम होना चाहिए कि वे केवल इसी झूठी आशा के सहारेे यह सब करते रहे कि आप बड़े हांेगे कामयाब होगें और उन्हें सुख देंगे और आपकी कामयाबी पर वो इठलाते फिरेंगे। मां-बाप जो मुकाम स्वयं हासिल नही कर पाये उन्हें आपके माध्यम से पूरा करना चाहते है लेकिन बच्चे उनका यह सपना चूर-चूर कर देते हैं।
    कुछ परिवारों में बुजुर्गों को ना तो देवता समझा जाता है और ना ही इन्सानों जैसा व्यवहार किया जाता है बस बुजुर्ग उपेक्षित, बेसहारा और एकान्तवास में रहकर ईश्वर से अपने बूलावे का इन्तजार मात्र करते रहते हैं।
     आप सोच रहे होगे कि हम तो ऐसा नही करते लेकिन मैं आपको बताना चाहुंगा कि अनजाने में आपसे ऐसा हो जाता है जिससे मां-बाप का दिल दुख जाता है। नीचे कुछ पंक्तियों मे ऐसी ही बातें मैं आपके सामने रख रहा हूॅ।
    आज हम अपने आसपास किसी ना किसी बुजुर्ग महिला या पुरूष पर अत्याचार होते देखकर, “उनका निजी मामला है “ ऐसा कहकर क्या अपनी मौन स्वीकृति नही दे रहे है ? आज कामकाजी महिलाओं की संख्या बढ़ी है यह अच्छी बात है लेकिन इसका तात्पर्य यह नही है कि बुजुर्ग मां-बाप आपके मात्र चौकीदार और आया बनकर रह जायें। बुजुर्ग महिला अपने पोते-पोतियों की दिनभर सेवा करे, शाम को बेटे-बहू के ऑफिस से आने पर उनकी सेवा करे। क्या इसी दिन के लिए पढ़ी-लिखी कामकाजी लड़की को वह अपनी बहू बनाती है। लेकिन क्या करे मां का बड़ा दिल वाला तमगा जो उसने लगा रखा है सभी दर्द को हॅसते-हॅसते सह लेती है। कभी उसके दिल के कोने में झांक कर देखों छिपा हुआ दर्द नजर आ जायेगा। यदि आप अपना कर्ज चुकाना चाहते है तो दिल के उस कोने का दर्द अपने प्यार से मिटा दो।
   दर्पण जल और र्स्फाटक में प्रकाशित सूर्य का प्रतिबिम्ब सभी ने देखा है। इस सत्य से भी कोई अनभिज्ञ नहीं है कि सूर्य के प्रतिबिम्ब का अस्तित्व सूर्य का कारण ही दिखलाई देता है। वस्तुतः प्रतिबिम्ब का अपना कोई अस्तित्व नहीं है अब ऐसी दशा में प्रतिबिम्ब अपने को सूर्य मान बैठे तो यह उसकी भूल ही होगी।

जीवात्मा का भी अपना अस्तित्व कुछ नहीं है। वह भी शरीर रूपी दर्पण में परमात्मा का प्रतिबिम्ब मात्र है। यदि मनुष्य स्वतः अपने अस्तित्व को अपनी विशेषता मान बैठे तो यह उसकी भी मूल होगी। किन्तु खेद है कि अज्ञान के कारण मनुष्य यह भूल करता है। उसे समझना तो यह चाहिए कि उसके अंतःकरण में जो परमात्म नाम का तत्व विराजमान है, उसी की विद्यमानता शरीर में चेतना उत्पन्न करती है, जिसके बल पर मनुष्य सारे विचार और व्यवहार करता है। परमात्म जब अपनी इस चेतना को अंतर्हित कर लेता है

तब यह चलता फिरता चेतन शरीर जड़ होकर मिट्टी बन जाता है। किन्तु मनुष्य सोचता यह है कि उसका शरीर अपना है, उसको चेतना अपनी है, अपनी सत्ता से ही वह सारे कार्य व्यवहार करता है। यह मनुष्य का मिथ्या अहंकार है।

जीवन प्रगति में मनुष्य का अहंकार बहुत बड़ा बाधक है। इसके वशीभूत होकर चलने वाला मनुष्य प्रायः पतन की ओर ही जाता है। श्रेय पथ की यात्रा उसके लिये दुरूह एवं दुर्गम हो जाती है। अहंकार से भेद बुद्धि उत्पन्न होती है जो मनुष्य को मनुष्य से ही दूर नहीं कर देती, अपितु अपने मूलस्रोत परमात्मा से भी भिन्न कर देती है। परमात्मा से भिन्न होते ही मनुष्य में पाप प्रवृत्तियाँ प्रबल हो उठती है। वह न करने योग्य कार्य करने लगता है। अहंकार के दोष से मति विपरीत हो जाती है और मनुष्य को गलत कार्यों में ही सही का मान होने लगता है।

रावण की विद्वता संसार प्रसिद्ध है। उसके बल की कोई सीमा नहीं थी। ऐसा नहीं सोचा जा सकता कि उसमें इतनी भी बुद्धि नहीं थी कि वह अपना हित अहित न समझ पाता। वह एक महान बुद्धिमान तथा विचारक व्यक्ति था। उसने जो कुछ सोचा और किया, वह सब अपने हित के लिए ही किया। किन्तु उसका परिणाम उसके सर्वनाम के रूप में सामने आया। इसका कारण क्या था? इसका एकमात्र कारण उसका अहंकार ही था। अहंकार के दोष ने उसकी बुद्धि उल्टी कर दी। इसी कारण उसे अहित से हित दिखलाई देने लगा। इसी दोष के कारण उसके सोचने समझने की दिशा गलत हो गई थी और वह उसी विपरीत विचार धारा से प्रेरित होकर विनाश की ओर बढ़ता चला गया।

ऐसा कौन सा अकल्याण है, जो अहंकार से उत्पन्न न होता हो। काम, क्रोध, लोभ आदि विकारों का जनक अहंकार ही को तो माना गया है। बात भी गलत नहीं है, अहंकारी को अपने सिवाय और किसी का ध्यान नहीं रहता, उसकी कामनायें अपनी सीमा से परे-परे ही चला करती है। संसार का सारा भोग विलास और धन वैभव वह केवल अपने लिए ही चाहता है। अहंकार की असुर वृत्ति के कारण वह बड़ा विलासी और विषयी बना रहता है। उसकी विषय-वासनाओं की तृष्णा कभी पूरी नहीं होती।

कितना ही क्यों न भोगा जाय, विषयों की तृप्ति नहीं हो सकती। इसी अतृप्ति एवं असंतोष के कारण मनुष्य के स्वभाव में क्रोध का समावेश हो जाता है। वह संसार और समाज को अपने अराँतोपका हेतु समझने लगता है और बुद्धि विषय के कारण उनसे शत्रुता मान बैठता है। वैसा ही व्यवहार करने लगता है। जिसके फलस्वरूप उसकी स्वयं की अशाँति तो स्थायी बन ही जाती है, संसार में भी अशाँति के कारण उत्पन्न करता रहता है।

अहंकार और लोभ एक दूसरे के अभिन्न साथी है। जहाँ एक होगा, वहाँ दूसरे का होना अनिवार्य है। अह के दोष से मनुष्य का लोभ इस सीमा तक बढ़ जाता है कि वह संसार की प्रत्येक वस्तु पर एकाधिकार चाहने लगता है। उसकी अधिकार लिप्सा असीमित हो जाती है। वह संसार के सूक्ष्म साधनोँ का लाभ केवल स्वयं ही उठाना चाहता है, किसी को उसमें भागीदार होते नहीं देख सकता। यदि कोई अपने गुणों, परिश्रम और पुरुषार्थ से उन्नति, विकास करता भी है तो अहंकारी को ऐसा आभास होता है, जैसे वह उन्नति शील व्यक्ति उसके अधिकार में हस्तक्षेप कर रहा है। उसकी सम्पत्ति और साधनों का भागीदार बन रहा है। और इस मति दोष के कारण वह बड़ा असहनशील हो उठता है। यदि शक्ति होती है तो वह उस बढ़ते हुए व्यक्ति को गिराने मिटाने का प्रयत्न करता है, नहीं तो जल भुनकर मन ही मन कुढ़ता रहता है।

इन दोनों अवस्थाओं में अहंकारी व्यक्ति अपनी ही हानि किया करता है। दूसरे को पीछे खींचने और धकेलने वाला कब तक क्षमा किया जा सकता है। एक दिन लोग उसके इस अपराध के विरोध में खड़े हो जाते है और उसके अहंकार को चूर चूर करके ही दम लेते है। जैसा कि दुर्योधन, कंस, शिशुपाल, हिटलर, नैपोलियन आदि आततायियों के विषय में लोगों ने किया। इन अनुचित लोगों को अहंकार बढ़ता गया, अधिकार, विस्तार और आधिपत्य की भावना बलवती हो गई। समाज पहले तो सद्भावनापूर्ण सहन करता रहा, किन्तु जब सहनशीलता की सीमा खत्म हो गई, समाज उठा और उन शक्तिमत अहंकारियों को शीघ्र ही धूल में मिलाकर सदा सर्वदा के लिए मिटा डाला।

निर्बल अहंकारी जो समाज का कुछ बिगाड़ नहीं पाता अपने मन में ही जलता भुनता और क्षोभ करता रहता है। अपना हृदय जलाता, शक्ति नष्ट करता और आत्मा के बंधन दृढ़ करता हुआ लोक परलोक नष्ट करता रहता है। जीवन में शाँति तो उसके लिए दुर्लभ हो ही जाती है, परलोक में भी लोक के अनुरूप नरक भोगा करता है और पुनर्जन्म में अन्य योनियों का अधिकारी बनकर युग युग तक दण्ड भोगा करता है। एक अहंकार दोष के कारण मनुष्य को ऐसी कौन सी यातना है जो भोगनी नहीं पड़ती। अहंकार में अकल्याण ही अकल्याण है उससे किसी प्रकार के श्रेय की आशा नहीं की जा सकती। इस विषधर से जितना बचा जा सकें उतना ही मंगल है।

अकारण अहंकार करने वाले व्यक्ति तो एक प्रकार से अभागे ही होते है। वे अपनी इस अहैतुक विषाग्नि में यों ही जलते रहते है। कोई शक्ति नहीं, कोई सम्पत्ति नहीं, कोई पुरुषार्थ नहीं तब भी शिर पर दम्भ का भार लिए फिरते है। बात बात में ऐंठते रहते है, बात बात में जान बधारते है- ऐसे निरर्थक अहंकारी पग-पग पर असहनीय और तिरस्कार पाते रहते है। अपनी सीमित परिधि में ही जिस पिटकर नष्ट हो जाते हैं न शाँति पा पाते है, और न सन्तोष योग्य कोई स्थिति। विस्तार व्यक्तियों का अहंकार न केवल विकार ही होता है, बल्कि वह एक रोग भी होता है, जो जीवन के विकास पर धरना देकर बैठ जाता है सारी प्रगतियों के द्वार बन्द कर देता है।

इसी प्रकार के निस्तार अहंकारी प्रायः अपराधी बन जाया करते है। प्रगति तो उनकी अपने इस रोग के कारण नहीं होती है और दोश ये समाज के मत्थे मड़ा करते हैं। बुद्धि भ्रम के कारण क्रोध करते हैं और संघर्ष उत्पन्न कर उसमें फँस जाते है। ऐसे अहंकारियों की कामनायें बड़ी चढ़ी होती हैँ, उनकी पूर्ति की क्षमता होती नहीं, वही निदान अपराध पथ पर बढ़ जाया करते है। अकारण अहंकार करने वाला व्यक्ति अपनी जितनी हानि किया करता है, उतनी शायद एक पागल व्यक्ति भी नहीं करता।

किन्तु साधन-सम्पन्न व्यक्ति भी अहंकार की आग में भस्म हुए बिना नहीं रहते। साधनहीन व्यक्ति यदि अहंकार को प्रश्रय देता है तो उसकी हानि उसकी भावी उन्नति की सम्भावना तक ही सीमित रहती है। पर साधन सम्पन्न व्यक्ति जब अहंकार को ग्रहण करता है, तब उसका भविष्य तो भयानक बनता ही है, वर्तमान भी ध्वस्त हो जाता है। इस दोष के कारण समाज का असहयोग होते ही सारे रास्ते बन्द हो जाते है। सम्पत्ति निकम्मी होकर पड़ी रहती है, किसी काम नहीं आती। सम्पत्ति की सक्रियता भी तो समाज के सहयोग पर ही निर्भर रहती है। जब समाज का सहयोग ही उठ जायेगा तो सम्पत्ति ही क्या काम बना सकती है? जीवन में आयात का मार्ग बन्द होते ही निर्यात आरम्भ हो जाता है, ऐसा नियम है। निदान धीरे धीरे सारी सम्पत्ति निकल जाती है। इस प्रकार वर्षों का संचय किया हुआ, अतीत का फल भी नष्ट हो जाता है। साधन सम्पन्न का पतन होते ही समाज में उसकी असहनीय अप्रतिष्ठा होने लगती है। लोग पहले जितना उसका मान सम्मान और आदर सत्कार किया करते थे, उसी अनुपात से अवमानना करने लगते है। आदर पाकर अपमान मिलने पर कितनी पीड़ा कितना दुख और कितना आत्म संताप मिलता होगा, इसको तो कोई भुक्त भोगी ही जान सकता है। अहंकार भयानक शत्रु के समान होता है। इससे क्या रिक्त और क्या सम्पन्न सभी व्यक्तियों को सावधान रहना चाहिए। यह जिसको अपने वश में कर लेता है, उसे सदा के लिए नष्ट कर डालता है।

प्रकट अहंकार की हानियाँ तो प्रकट ही है। गुप्त अहंकार भी कम भयानक नहीं होता। बहुत लोग चतुरता के बली पर समाज में अपने अहंकार को छिपाये रहते हैं। ऊपर से बड़े विनम्र और उदार बने रहते है, किन्तु अन्दर ही अन्दर उससे पीड़ित रहा करते है। ऐसे मिथ्या लोग उदारता दिखलाने के लिए कभी कभी परोपकार और परमार्थ भी किया करते है। दान देते समय अथवा किसी की सहायता करते समय बडीद्य निस्पृहता प्रदर्शित करते हैं, किन्तु अन्दर ही अन्दर लोकप्रियता, प्रशंसा और प्रकाशन के लिए लाभान्वित बने रहते है। कई बार तो जब उनकी यह कामना, आकांक्षा अपूर्ण रह जाती है, उतनी लोकप्रियता अथवा प्रशंसा नहीं पाते, जितनी कि वे चाहते है, तो वे अपने परोपकार परमार्थ अथवा दानपुण्य पर पश्चाताप भी करने लगते है और बहुधा आगे के लिए अपनी उदारता का द्वार ही बन्द कर देते हैं। ऐसे मानसिक चोर अहंकारियों को अपने परमार्थ का भी कोई फल नहीं मिलता, बल्कि ऐसे मिथ्या दानी प्रायः पाप के ही भागी बनते है। परमार्थ कार्यों में अहंकार का समावेश अमृत में विष और पुण्य में पाप का समावेश करने के समान होता है।

वैसे तो अहंकारी कदाचित ही उदार अथवा पुण्य परमार्थी हुआ करते है। पाप का गट्ठर सिर पर रखे कोई पुण्य में प्रवृत्त हो सकेगा- यह सन्देहजनक है। पुण्य में प्रवृत्त होने के लिए पहले पाप का परित्याग करना होगा। स्वास्थ्य प्राप्त करने के लिए रोगी को पहले रोग से मुक्त होना होगा। रोग से छूटने से पहले ही यदि वह स्वास्थ्यवर्धक व्यायाम में प्रवृत्त हो जाता है तो उसका मन्तव्य पूरा न होगा।

लोक-परलोक का कोई भी श्रेय प्राप्त करने में अहंकार मनुष्य का सबसे विरोधी तत्व है। लौकिक उन्नति अथवा आत्मिक प्रगति पाने के लिए किये जाने वाले प्रयत्नों में अहंकार का त्याग सबसे प्रथम एवं प्रमुख प्रयत्न है। इसमें मनुष्य को यथाशीघ्र तत्पर हो जाना चाहिए। अहंकार के त्याग से उन्नति का मार्ग तो प्रशस्त होता ही है साथ ही निरहंकार स्थिति स्वयं में भी बड़ी सन्तोष एवं शाँतिदायक होती है।

अहंकार मानव के जीवन का अभिशाप है।



एक प्रकार का मनोरोग है अहंकार
हमारा समाज जिस तीव्रता से प्रगति व आधुनिकीकरण की ओर अग्रसर है, उसका प्रभाव मानव-मस्तिष्क पर भी पड़ा है। आज हर व्यक्ति में 'ईगो' की भावना पनप रही है। ईगो यानी अहम् व 'स्वाभिमान' का वास्तविक अर्थ अब अहंकार बन चुका है। अहंकार, कभी धन, कभी शिक्षा, तो कभी सौंदर्य और वैभव आदि के रूप में मानव के हृदय में इस क़दर समा चुका है कि व्यक्ति जाने-अनजाने दूसरे का अनादर कर बैठता है। अहंकारी व्यक्ति को लगता है कि सारी दुनियां उसी के अनुसार चल रही है तथा वह जो चाहे, पल भर में हो सकता है। वह हर समय अपने झूठे गर्व भरे मार्ग पर चलता रहता है। भले ही इससे किसी का अहित हो लेकिन उस पर कुछ प्रभाव नहीं पड़ता। उसका एकमात्र उद्देश्य अपनी कल्पनाओं व अहम् की उड़ान भरना होता है। अहंकार के शिकार लोगों का मानना है कि वही संसार के सर्वेसर्वा हैं। वे हर समय, हर किसी के समक्ष अपने छोटे-छोटे कारनामों को भी बढ़ा-चढ़ाकर बताते हैं। ऐसा करने के पीछे उनकी यही मानसिकता होती है कि वे अत्यंत महान और आत्मविश्वासी हैं और सहज ही किसी को अपनी ओर आकर्षित करने की कला में पारंगत हैं जबकि वास्तविकता यह है कि ऐसे लोग मात्र मुंह के शेर होते हैं। उनके मन में किसी कोने में यह आत्मबोध भी छुपा होता है कि वे डरपोक और कमजोर हैं और अपनी इसी खामी को छुपाने के लिए वे अपनी झूठी तारीफ़ों के पुल बांधते हैं। यद्यपि अहंकार और अहं भाव में काफी अंतर है तथापि आज अपने बढ़ते महत्त्व को देखते हुए अहंकार ने अहंभाव को भी अपना दास बना लिया है। धन, पद, विद्या, रूप, बल व सौंदर्य आदि में पारंगत होना कोई बुरी बात नहीं और इसमें भी कोई संदेह नहीं कि इन सभी गुणों से युक्त व्यक्ति का स्वाभिमान और गर्वयुक्त स्वभाव उसे दूसरों से उच्च रखता है लेकिन इस स्वाभिमान व गर्व को अहंकार में बदल देना वाकई निंदनीय है। सही मायनों में इन सभी गुणों में वास्तविक प्रवीण वह व्यक्ति है जो इनका उपयोग समाज के हित और उन्नति में करते हैं। जिस प्रकार सूर्य व चंद्रमा अपनी रोशनी व शीतलता प्रकृति को बांटते हैं, धरती अपना सारा अन्न जीवों को बांट देती है, उसी प्रकार व्यक्ति को अपने गुण समाज को समर्पित कर देने चाहिए। अहंकार की विस्तृत विवेचना की जाये तो यही सार निकलता है कि अहंकार का अर्थ है भौतिक वस्तुओं एवं शारीरिक क्षमताओं व उपलब्धियों पर इतराना मात्र। अहंकारी व्यक्ति यह भूल जाता है कि अहंकार एक असत्य और झूठ है जिसका कोई अस्तित्व नहीं। वह अकेला है, उसके साथ संसार नहीं होता। सभी सत्य के साथ होते हैं। मधुर वाणी सभी को मोहित कर लेती है तथा सहृदयी व्यक्ति अपने गुणों से सभी के हृदय पर राज कर सकता है तो फिर अहंकार का मूल्य क्या है, केवल शून्य! बलशाली, धनवान, ज्ञानवान और जनप्रिय व्यक्ति के पास जब इतने अमूल्य गुण हैं तो उसके हृदय में अहंकार का काम क्या? उसे अहंकार से ग्रसित होने से क्या फ़ायदा और यदि वह फिर भी अहं का दास बनता है तो इसका मतलब है कि इन गुणों को उसने पूरी तरह प्राप्त नहीं किया और यदि कर लिया है तो अहंकार उन सभी को शीघ्र नष्ट कर देगा। जो माहिर होते हैं फऩ में, उछलकर वो नहीं चलते। छलक जाता है पानी, कायदा है ओछे बरतन का।। मनोचिकित्सकों का मानना है कि अहंकार एक प्रकार से मानसिक रोग है, जो मानव की मानसिक विषमता से पनपता है। इसके पीछे घृणा, वैर और अत्यधिक उपलब्धियों का सहयोग होता है। एक अन्य अध्ययन के अनुसार यदि अहंकार की प्रवृत्ति पर ध्यान दिया जाये तो पता चलता है कि अहंकार के प्रमुख कारक शारीरिक बलिष्ठता, धन व सौंदर्य आदि क्षणिक मात्र हैं अर्थात शारीरिक बलिष्ठता पर अहंकार करना आपराधिक प्रवृत्ति है। धन पर अहंकार करना लोभी होने का इशारा करता है और सौंदर्य पर गर्व करने से वासना का उपासक होने का संकेत मिलता है। इन भौतिक संपदाओं पर कैसा अहंकार करना, जब यह इस शरीर के साथ यहीं समाप्त हो जायेंगी। अहंकार व्यक्ति को व्यक्ति से जोड़ता नहीं बल्कि रिश्ते बिखेर देता है और यदि कुछ देता है तो सिर्फ़ आपसी वैमनस्य, घृणा, कुंठा व रंजिशें, अत: अपने गुणों पर गर्व करें लेकिन अहंकार नहीं। उन्हें दूसरों के हित में उपयोग करें न कि अपनी ही तारीफें बटोरने हेतु वरना ईश्वर द्वारा प्रदत्त यह वरदान दूषित होकर अभिशाप में भी बदल सकता है।

आधुनिकता की दौर में राजनीतिक समरसता

बदल चुकी
अब जीवन शैली
चादर पूरी मैली
लौटा मानव
फिर आदि गुहा में
हिंसा क्रूर, बनैली।
1
बदल चुकी
जीवन शैली अब
‘स्व’ में डूबे हैं सब
माँ, मातृभाषा
देसी, गँवार लगे
विदेसी मन रमे।
2
भूले गौ–सेवा
तुलसी का वन्दन
गंगा–अभिनन्दन
पोंछ डालते
माँ भी लगा दे यदि
माथे पर चन्दन।
3
आधी दुनिया
अत्याचार सहती
बरबाद हो गई
पूजा की माला
पैरों तले मसली
नुची–टूटी–कुचली।
4
नई सभ्यता
बस्ते का बोझ भारी
लूटा है बचपन
वंचक तन्त्र
खो गई है मुनिया
बनैले जन्तु–वन।
5
ममता भरी
नेह की बौछार से
जोड़ती परिवार
अमृत–लेप
संजीवनी बूटी माँ
समझा नहीं कोई।
6
उम्र–क़ैद है
बूढ़ी माँ की कोठरी
खुलते न कपाट
बेमियाद है
कितनी लम्बी डोर !
पाया ओर न छोर !
7
बाग़ हरा है
फल–फूलों–भरा है
अकूत है सम्पदा
बाग़बाँ भूखा
करता रखवाली
न मिले रूखा–सूखा।
8
बूढ़ा पीपल
कामनाओं के धागों
बँधा–जकड़ा खड़ा
मन्नतों–लदा
याचना–भार दबा
रात–दिन जागता।
9
सहा न जाए
भाई–पति–पुत्र से
बहन–पत्नी–माँ का
यश–उत्कर्ष
खड़ी करें समस्या
नित नए संघर्ष !
10
छाया बन के
जीती रही ताउम्र
अबला रही नारी
जिस दिन से
खड़ी हुई अके ली
नर पे पड़ी भारी।
11
न तो है छाया
न कोई परछाइ
मस्त खड़ा अकेला
पत्तों की माया
नहीं लुभाती मुझे
मैं ठूँठ अलबेला।
12
बेल का पेड़
फलों से लदा खड़ा
अपने भार झुका
पत्ता न एक :
अनुभव का पफल
उम्र पकने पर।
13
बच्चे हुए हैं
आकाश–कुसुम से
पहुँच के बाहर
मिल न पाऊँ
सपनों में देख लूँ
या मन के भीतर।
14
नियति हँसी
मेरे बाग़ की कली
कहीं और जा खिली
ठगी मैं खड़ी
बस, यही दुआ की–
‘नित बहार मिले’।
15
कुटज खोया
कदम्ब बिसराया
अश्वत्थ भी भुलाया
सड़कों पर
धूल फाँकता खड़ा
कर्णिकार बेचारा।
16
बाग़ की शोभा
फर्न, पाम, क्रोटन
कैक्टस बेशुमार
कौन तो पूछे
देसी पेड़–पौधों को
अब वे हैं गँवार।
17
रोते फिरते
जूही, चम्पा, केवड़ा
कुन्द, बेला, मोगरा
जमाया कब्ज़ा
रंग–भरे फूलों ने
सुगन्धिहीन सत्ता।
18
सजा बाग़ीचा
विलायती फूलों से
रंगारंग बहार
मात खा गए
हरी–भरी दूर्वा से
यहीं हुए लाचार।
19
श्वेत वसना
निर्मल थी नदिया
तरंग में बहती
खल मानव !
मलिन कर डाली
वह शोभा अनूठी।
20
वायु–चीत्कार
करता हाहाकार
बचाए मुझे कोई
धुएँ की मार
खाँसता रात–दिन
चैन की नींद खोई।
21
मानव–दम्भ
आकाश किया छेद
फिरता इतराता
माथे में घाव
लिये जब घूमेगा
बन के अश्वत्थामा।
22
पंछी की पीर
सुनते तरु सदा
और बँधाते धीर–
रोयेंगे मिल
मित्र–द्रोह कर के
आरी–कुल्हाड़ी–तीर।
23
शाश्वत दृश्य :
अनादि से अनन्त
फैला है राज–पथ
निर्लिप्त, मौन
नहीं रखता वास्ता
कौन किार चला !
24
सत्ता की प्यास
अनबुझ, है सदा
राम को वनवास
हर युग में
छली गई जनता
हारी बैठी उदास।
25
नदी किनारे
बगुला मन मारे
राम–राम जपता
हुए चतुर
मछलियाँ, के कड़े
कोई नहीं फँसता !
26
अनाथ बच्चा
आज बहुत रोया
रात भूखा था सोया
गलियों–घूमा
ठिठुराता था शीत
नहीं किसी ने पूछा।
27
देश से छल !
किसी दिन पूछेगी
जनता ‘हाल–चाल’
अरे लुटेरो !
आज़ादी बेच खाई
हुए हो मालामाल !!

अयोध्या में आज का आधुनिक सुविधाएं

  राममंदिर परिसर राममय होने के साथ-साथ आधुनिक सुविधाओं से भी लैस होगा। रामलला के दरबार में रामभक्तों को दिव्य दर्शन की अनुभूति होगी। एक साथ ...