रविवार, 26 अप्रैल 2020

कोरोना कविता


कितने खौफ़नाक मंज़र हैं यहां तबाही के

घुटने टूटे सुपरशक्ति की तानाशाही के
कितने खौफ़नाक मंज़र हैं यहां तबाही के.

फंसी हुई दुनिया कैसे
अपने ही पांसों में
एक वायरस टहल रहा
आदम की सांसों में
अवरोधक लग गए
पांव में आवाजाही के.
कितने खौफ़नाक मंज़र हैं यहां तबाही के.

सुनते हैं यमराज कहां
कब कोई भी बिनती
रोज यहां गिरती लाशों की
कौन करे गिनती
दिखते हैं ताबूत अनगिनत
यहां उगाही के
कितने खौफ़नाक मंज़र हैं यहां तबाही के.

कहां गया ईश्वर बहुव्यापी
जग का विषपायी
एक वायरस ने दुनिया को
किया धराशायी
कुछ दिन में तो लोग मिलेंगे
नहीं गवाही के.
कितने खौफ़नाक मंज़र हैं यहां तबाही के.

वल्गाएं थम गयीं
प्रगति की संध्या वेला है
यह दुनिया लगती जैसे
दो दिन का मेला है
कहां गए वे दिन
पहले-से सरितप्रवाही के.
कितने खौफ़नाक मंज़र हैं यहां तबाही के.

रेलें ठप, ठप हुई
हवाई सारी यात्राएं
घर में कैद सुनाएं
कैसे अपनी पीड़ाएं
तेल कान में डाल
सो रही नौकरशाही के.
कितने खौफ़नाक मंज़र हैं यहां तबाही के.

पहले सी अब दिखती नहीं वे रौनकें बाजार की

पहले सी अब दिखती नहीं हैं
रौनकें बाजार की.

हर ओर सन्नाटा यहां
हर रोज बढ़ते फासले
हर रोज मौतें बढ़ रहीं
हर ओर दुख के काफिले

कैसी महामारी चली
धुन थम गयी संसार की.

वे वक्त के मजदूर हैं
पर वक्त से मजबूर हैं
ताले लगे, रस्ते रुके
जाएं कहां वे दूर हैं

सुनता कहां मालिक भला
चीखें यहां लाचार की.

है पीठ पर गठरी लदी
औ कांध पर बच्चे लदे
जाना है मीलों दूर तक
पर प्राण फंदों में फँदे

है जान सांसत में पड़ी
खुद ही यहां सरकार की.

कैसा भयंकर वायरस !
जीवन हुआ इससे विरस
हर शख़्स संक्रामक हुआ
वर्जित हुआ उसका परस

बस मास्क में महफूज है
सांसें सकल संसार की.

संदिग्ध है हर छींक तक
संगीन है वातावरण
अस्पृश्यता ने हर लिया
है सभ्यता का आवरण

चूलें एकाएक हिल उठीं
अस्तित्व के दीवार की .

है चीन से फैला जहर
ईरान पर बरपा कहर
इटली बना शमशान है
बज उठा यू.एस में बजर

संभावनाएं क्षीण हैं
इस व्याधि के उपचार की.

ठप हुए उत्पादन सभी
चुक रहे संसाधन सभी
शेयर सभी लुढ़के पड़े
बेअसर आवाहन सभी

मंदी ने तोड़ी है कमर
दुनिया के कारोबार की.
***
चारो ओर महामारी है

किसका है यह पाप अधम
जीवन ज्यों हुआ अशुभकारी है.
चारो ओर महामारी है.

देखो सब पैगंबर चुप हैं
एक वायरस घूम रहा है
फैल रहा है महासंक्रमण
जिस जिसको यह चूम रहा है
अभी पराजित नहीं समर में
युद्ध अभी इससे जारी है.
चारो ओर महामारी है.

कैसा खौफ़नाक मंजर है
गलियां सूनी सड़कें सूनी
रमे हुए हैं अपने ही घर
खुद ही खुद सब लगाके धूनी
दूकानों पर माल नदारद
कैसी तो यह लाचारी है .
चारो ओर महामारी है.

किस प्रयोगशाला से निकले
ये कद्दावर जैव वायरस
चूस रहे हैं इंसानों का
अब तक का संचित जीवनरस
मास्क पहन कर घूम रहे यम
देखो किस-किस की बारी है.
चारो ओर महामारी है.

अस्त्र शस्त्र के बिना निरंतर
जारी अब यह विश्वयुद्ध है
जो वरदान हुआ करता था
अब वह ही विज्ञान क्रुद्ध है

कर लो जो बचाव संभव है
इसकी मुद्रा संहारी है .
चारो ओर महामारी है.
***

कैसा जिरहबख्तर पहन
फैला कोरोना का कहर
डर है बहुत आठो पहर.

खामोशियां हर ओर हैं
बीमारियों का शोर है
चेहरे यहां दिखते नहीं
यों मास्कमय यह भोर है

किसने यहां घोला जहर
डर है बहुत आठो पहर.

इसका न कोई रूप है
इसका न कुछ आकार है
यह है विकारों से भरा
यह विषों का आगार है

सॉंसें हैं जैसे लीज पर
जीवन है जैसे दर-ब-दर.

रेलें नहीं मेले नहीं
रिक्शे नहीं ठेले नहीं
जीवन की रेलपमेल में
ऐसे तो पल झेले नहीं

जीवन की गति अवरुद्ध है
गतिरुद्ध है सारा शहर.

कस्बे सभी सूबे सभी
डूबे हैं मंसूबे सभी
कैसी लहर यह बेरहम
सपने मगर ऊबे नहीं

है ग़ज़ल-सी यह ज़िन्दगी
खो गयी है जिसकी बहर.

कैसा समय कैसी सदी !
हर पल यहां पर त्रासदी
इक वायरस के कोप से
थम-सी गयी जीवन-नदी
दुनिया न बन जाए कहीं
बस आज की ताज़ा खबर .

फैला कोरोना का कहर
डर है बहुत आठो पहर.
***
इंसानों की दुनिया कितनी नश्वर है!!

मृत्यु उपत्यका कहीं न बन जाए यह देश.
घूम रहा है महासंक्रमण
बदले भेष.

इसके पाँव हजारों, लाखों बाहें हैं
इसकी मंजिल एक, हजारों राहें हैं
इसके मंसूबे हिंसक
मन में विद्वेष.

हाथ मिला ले किसे पकड़ ले नहीं पता
किसे बुखार जुकाम जकड़ ले नहीं पता
इसके लिए संत आखिर क्या
औ दरवेश!

महासंक्रमण की गति कितनी सत्वर है
इंसानों की दुनिया कितनी नश्वर है
नही मानता यह
हिटलर का भी आदेश.

रहो अकेले घर में अपनी मस्ती से
दूर रहो पर भीड़ भाड़ की बस्ती से
अगर बचोगे तभी
बचेगा अपना देश.
घूम रहा है महा संक्रमण बदले भेष.
***

यह महानगर की सुबह
तनिक अलसाई सी
खाली सड़कों पर
डोल रही तनहाई सी
फिर पेड़ों की शाखों पर कोयल कुहुक उठी
कुदरत भी जैसे इठलाकर खुद चहक उठी.

कोलाहल जीवन का कुछ थमा-थमा सा है
सन्नाटे का यह छंद नया-नया सा है
सुन पड़ती ऐसे में आवाजें साफ साफ
वह शोरीलापन दिन का थमा-थमा सा है
यह कोविद से लड़ने की इकजुट तैयारी
यह महासंक्रमण से बचने की हुशियारी
सांसें ये यम की भेंट कहीं न चढ़ जाएं
जीवन की टहनी पर उम्मीदें पुलक उठीं.

यह कुदरत जिस पर नित प्रहार होते आए
नदियों तालों पर्वत पर पूँजी के साए
ये वन्य जन्तु हैं भक्ष्य बने जब से, तब से
दुनिया पर महा संक्रमण के बादल छाए
है महाप्रलय की वेला जैसै घिर आई
उच्छल सागर में डूब रहा ज्यों नौकाई
फरियाद सतत् जीने की कातर ख्वाहिश की
आंखों से टप-टप आंसू जैसी ढुलक उठी.
***

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