रविवार, 26 अप्रैल 2020

कोरोना कविता

कोरोना ग़ज़ल:
यही संकट रहा तो

यही संकट रहा तो ज़िन्दगी के दुख कौन बांटेगा
अकेलेपन से लड़ते आदमी के दुख कौन बांटेगा.

जहां पर दूरियां दिल में बहुत पहले से हों कायम
वहां पर पास रह कर आदमी के दुख कौन बांटेगा.

अभी तो हैं हवाओं की नमी में वायरस जिन्दा
अभी तो गले मिल कर भाइयों के दुख कौन बांटेगा.

यहां पर बंद सब कुछ काम हाथों में नहीं कोई
यहां भूखे औ प्यासे आदमी के दुख कौन बांटेगा.

अभी सब 'अपने अपने अजनबी' से नजर आते हैं
अभी अपनाइय्यत के साथ सुख-दुख कौन बांटेगा.

अकेला लड़ रहा है वायरस से वह अकेले में
कि इस तनहाई में बीमार का दुख कौन बांटेगा .

के जिस दुनिया में होंगी वायरस की खेतियां उसमें
तड़प कर मरने वालों के भला दुख कौन बांटेगा.

ये दुनिया क्या इसी दिन के लिए हमने बनाई है
न होगा आदमी तो आदमी के दुख कौन बांटेगा.
***

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