शनिवार, 25 दिसंबर 2021


*ना_जाने_किस_रूप_में


*हरिहर एक सीधा-साधा किसान था। वह दिन भर खेतों में मेहनत से काम करता और शाम को प्रभु का गुणगान करता।*


*उसके मन की एक ही साध थी। वह उडुपि के भगवान श्री कृष्ण के दर्शन करना चाहता था। उडुपि दक्षिण कन्नड़ जिले का प्रमुख तीर्थ था। प्रतिवर्ष जब तीर्थयात्री वहां जाने को तैयार होते तो हरिहर का मन भी मचल जाता किंतु धन की कमी के कारण उसका जाना न हो पाता।*


*इसी तरह कुछ वर्ष बीत गए। हरिहर ने कुछ पैसे जमा कर लिए। घर से निकलते समय उसकी पत्नी ने बहुत-सा* *खाने-पीने का सामान बाँध दिया। उन दिनों यातायात के साधनों का अभाव था। तीर्थयात्री पैदल ही जाया करते।*


*रास्ते में हरिहर की भेंट एक बूढ़े व्यक्ति से हुई। बूढ़े के कपड़े फटे-पुराने थे और पाँव में जूते तक न थे। अन्य तीर्थयात्री उससे कतराकर निकल गए किंतु हरिहर से न रहा गया। उसने बूढ़े से पूछा-*

*'बाबा, क्या आप भी उडुपि जा रहे हैं?'*

*बूढ़े की आँखों में आँसू आ गए। उसने रुँधे स्वर में उत्तर दिया-*


*'मैं भला तीर्थ कैसे कर सकता हूँ? एक बच्चा तो बीमार है और दूसरे बेटे ने तीन दिन से कुछ नहीं खाया।'*


*हरिहर भला व्यक्ति था। उसका मन पसीज गया। उसने निश्चय किया कि वह उडुपि जाने से पहले बूढ़े के घर जाएगा। बूढ़े के घर पहुँचते ही हरिहर ने सबको भोजन खिलाया। बीमार बच्चे को दवा दी। बूढ़े के खेत, बीजों के अभाव में खाली पड़े थे। लौटते-लौटते हरिहर ने उसे बीजों के लिए भी धन दे दिया। जब वह उडुपि जाने लगा तो उसने पाया कि सारा धन तो खत्म हो गया था। वह चुपचाप अपने घर लौट आया। उसके मन में तीर्थयात्रा न करने का कोई दुख न था बल्कि उसे खुशी थी कि उसने किसी का भला किया है।*


*हरिहर की पत्नी भी उसके इस कार्य से प्रसन्‍न थी। रात को हरिहर ने सपने में भगवान कृष्ण को देखा। उन्होंने उसे आशीर्वाद दिया और कहा-*


*'हरिहर, तुम मेरे सच्चे भक्त हो। जो व्यक्ति मेरे ही बनाए मनुष्य से प्रेम नहीं करता, वह मेरा भक्त कदापि नहीं हो सकता।'*


*तुमने उस बूढ़े की सहायता की और रास्ते से ही लौट आए। उस बूढ़े व्यक्ति के वेष में मैं ही था। अनेक तीर्थयात्री मेरी उपेक्षा करते हुए आगे बढ़ गए, एक तुमने ही मेरी विनती सुनी।*


*मैं सदा तुम्हारे साथ रहूँगा! अपने स्वभाव से दया, करुणा और प्रेम का त्याग मत करना।'*


*हरिहर को तीर्थयात्रा का फल मिल गया था।*


*हमारे आस-पास जो दीन दुखी है, गाय या कोई अन्य जीव है उनकी सहायता, सेवा जैसे भी हो अवश्य करें क्योंकि*

*ना जाने किस रूप में नारायण मिल जाए..!!*

   *🙏🏼🙏🏿🙏🏾जय जय श्री राधे*🙏🏽🙏🏻🙏

 *संसार में सबसे ताकतवर*

           *व्यक्ति वही है.!*

    *जो "धोखा" खाने के बाद भी,*

*लोगो की भलाई करना नही छोड़ता.!!*


      

 .                            "अमूल्य दान"


         कुरुक्षेत्र युद्ध में विजय पाने की खुशी में पाण्डवों ने राजसूय यज्ञ किया। दूर-दूर से आए हजारों लोगों को बड़े पैमाने पर दान दिया गया। यज्ञ समाप्त होने पर चारों तरफ पाण्डवों की जय-जयकार हो रही थी। पांचो पाण्डव तथा श्रीकृष्ण यज्ञ की सफलता की चर्चा में मग्न थे। पाण्डव इस बात से संतुष्ट थे कि इस राजसूय यज्ञ का फल उन्हें अवश्य प्राप्त होगा।

         तभी एक नेवला जिसका आधा शरीर सुनहरा और आधा भूरा था, राजमहल के भण्डारगृह से बाहर निकला और यज्ञभूमि पर लोटने लगा। फिर वापस भण्डार गृह में चला गया। यह प्रक्रिया उसने चार-पांच बार दोहराई। इस विलक्षण नेवले की विचित्र हरकतें देख कर पांडवों को बड़ा आश्चर्य हुआ। 

         धर्मराज युधिष्ठिर पशु-पक्षियों की भाषा जानते थे। उन्होंने नेवले से कहा, यह तुम क्या कर रहे हो ? तुम्हें किस वस्तु की तलाश है ? नेवले ने आदरभाव से युधिष्ठिर को प्रणाम किया और बोला, हे राजन, आपने जो महान यज्ञ सम्पन्न किया है, उससे आपकी कीर्ति दसों दिशाओं में व्याप्त हो गई है। इस यज्ञ से आपको जिस पुण्य की प्राप्ति होगी, उसका कोई अंत नहीं है। मैं तो इस पुण्य के अनन्त सागर में से पुण्य का एक छोटा-सा कण अपने लिए ढूंढ रहा हूँ। लोग झूठ कहते हैं कि इससे वैभवशाली यज्ञ कभी नहीं हुआ, पर यह यज्ञ तो कुछ भी नहीं है। यज्ञ तो वह था जहाँ लोटने से मेरा आधा शरीर सुनहरा हो गया था। युधिष्ठिर के उस यज्ञ के बारे में पूछने पर नेवले ने कहा,

         एक बार भयानक अकाल पड़ा। लोग भूख और प्यास के मारे प्राण त्यागने लगे। चारों ओर त्राहि-त्राहि मची हुई थी। उस समय एक गाँव में एक गरीब ब्राह्मण अपनी पत्नी, पुत्र और पुत्रवधू के साथ रहता था। कई दिन तक ब्राह्मण परिवार में किसी को अन्न नहीं मिला। 

         एक दिन वह ब्राह्मण कहीं से थोड़ा-सा सत्तू माँगकर लाया और उसमें जल मिलाकर उसके चार गोल लड्डू जैसे बना लिये। जैसे ही ब्राह्मण अपने परिवार सहित उस सत्तू के लड्डूओं को खाने लगा, उसी समय एक अतिथि ब्राह्मण ने दरवाजे पर आकर कहा, मैं छ: दिनों से भूखा हूँ कृपया मेरी क्षुधा शान्त करें।

         अतिथि को भगवान् का रूप मानकर पहले वाले ब्राह्मण ने अपने हिस्से का सत्तू अतिथि को दे दिया, मगर उसे खाने के बाद भी अतिथि की भूख नहीं मिटी। तब ब्राह्मणी ने अपने हिस्से का सत्तू अतिथि को दे दिया इससे भी उसका पेट नहीं भरा तो बेटे और पुत्रवधू ने भी अपने-अपने हिस्से का सत्तू अतिथि को दे दिया। 

         अतिथि ब्राह्मण उस सत्तू को खाकर तृप्त हो गया और उसी स्थान पर हाथ धोकर चला गया। उस रात भी ब्राह्मण परिवार भूखा ही रह गया और कई दिन की भूख से उन चारों का प्राणान्त हो गया।

         जहाँ अतिथि ब्राह्मण ने हाथ धोए थे वहाँ सत्तू के कुछ कण जमीन पर गिरे पड़े थे। मैं (नेवला) उन कणों पर लोटने लगा तो जहाँ तक मेरे शरीर से उन कणों का स्पर्श हुआ, मेरा शरीर सुनहरा हो गया। मैं समझ नहीं पा रहा था कि यह सब कैसे हो गया ? 

         मैं एक ऋषि के पास पहुँचा और उन्हें सारा वृतान्त सुनाकर यह जानने की जिज्ञासा प्रकट की कि मेरे शरीर का आधा भाग सोने का कैसे हो गया ? ऋषि अपने ज्ञान के बल पर पूरी घटना जान गए थे और बोले, जिस जगह तुम लेटे हुए थे, उस स्थान पर सत्तू का थोड़ा-सा अंश बिखरा हुआ था। वह चमत्कारिक सत्तू तुम्हारे शरीर के जिस-जिस भाग पर लगा वह भाग स्वर्णिम हो गया है।

         इस पर मैंने ऋषि से कहा, कृपया मेरे शरीर के शेष भाग को भी सोने का बनाने हेतु कोई उपाय बताइए। ऋषि ने कहा, उस परिवार ने धर्म और मानवता के लिए अपने प्राणों का बलिदान दिया है। यही कारण है कि उसके बचे हुए अन्न में इतना प्रभाव उत्पन्न हो गया कि उसके स्पर्शमात्र से तुम्हारा आधा शरीर सोने का हो गया। भविष्य में यदि कोई व्यक्ति उस परिवार की भांति ही धर्मपूर्ण कार्य करेगा तो उसके बचे हुए अन्न के प्रभाव से तुम्हारा शेष शरीर भी स्वर्णिम हो जाएगा। 

         तब से मैं सारी दुनिया में घूमता फिरता हूँ कि वैसा ही यज्ञ कहीं और हो, लेकिन वैसा कहीं देखने को नहीं मिला इसलिए मेरा आधा शरीर आज तक भूरा ही रह गया है।

         जब मैंने आपके राजसूय यज्ञ के बारे में सुना, तो सोचा, आपने इस यज्ञ में अपार सम्पदा निर्धनों को दान की है और लाखों भूखों को भोजन कराया है, उसके प्रताप से मेरा शेष आधा शरीर भी सोने का हो जाएगा। यह सोचकर मैं बार-बार यज्ञभूमि में आकर धरती पर लोट रहा था किंतु मेरा शरीर तो पूर्व की ही भांति है। नेवले की बात सुनकर युधिष्ठिर लज्जित हो गए।

         श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को जब इस प्रकार चिंतामग्न देखा तो बोले, यह सत्य है कि आपका यज्ञ अपने में अद्वितीय था, जिसमें आप लोगो ने असंख्य भूखे व्यक्तियों की भूख शांत की, किन्तु नि:संदेह उस परिवार का दान आपके यज्ञ से बहुत बड़ा था क्योंकि उन लोगों ने उस स्थिति में दान दिया, जब उनके पास कुछ नहीं था। अपने प्राणों को संकट में डालकर भी उस परिवार ने अपने पास उपलब्ध समस्त सामग्री उस अज्ञात अतिथि की सेवा में अर्पित कर दी। आपके पास बहुत कुछ होते हुए भी आपने उसमें से कुछ ही भाग दान किया। अतः आपका दान उस परिवार के अमूल्य दान की तुलना में पासंग भर भी नहीं है।

         श्रीकृष्ण की बात सुनकर सभी पांडवों को समझ में आ गया कि दान, यज्ञ, तप आदि में आडम्बर होने से कोई फल प्राप्त नहीं होता है। दान आदि कार्य सदैव ईमानदारी के पैसे से ही करने चाहिए।

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       "जय जय श्री राधे"

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हक की लड़ाई तो अकेले ही लड़नी पड़ती है ...

सैलाब उमड़ पड़ता है जीत जाने के बाद।


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 .                            गुरु की चिट्ठी 


          एक गृहस्थ भक्त अपनी जीविका का आधा भाग घर में दो दिन के खर्च के लिए पत्नी को देकर अपने गुरुदेव के पास गया। दो दिन बाद उसने अपने गुरुदेव को निवेदन किया के अभी मुझे घर जाना है। मैं धर्मपत्नी को दो ही दिन का घर खर्च दे पाया हूँ। घर खर्च खत्म होने पर मेरी पत्नी व बच्चे कहाँ से खायेंगे। गुरुदेव के बहुत समझाने पर भी वो नहीं रुका। तो उन्होंने उसे एक चिट्ठी लिख कर दी। और कहा कि रास्ते में मेरे एक भक्त को देते जाना। वह चिट्ठी लेकर भक्त के पास गया। उस चिट्ठी में लिखा था कि जैसे ही मेरा यह भक्त तुम्हें ये खत दे तुम इसको 6 महीने के लिए मौन साधना की सुविधा वाली जगह में बन्द कर देना। उस गुरु भक्त ने वैसे ही किया। वह गृहस्थ शिष्य 6 महीने तक अन्दर गुरु पद्धत्ति नियम, साधना करता रहा परन्तु कभी कभी इस सोच में भी पड़ जाता कि मेरी पत्नी का क्या हुआ, बच्चों का क्या हुआ होगा ??

          उधर उसकी पत्नी समझ गयी कि शायद पतिदेव वापस नहीं लौटेंगे। तो उसने किसी के यहाँ खेती बाड़ी का काम शुरू कर दिया। खेती करते करते उसे हीरे जवाहरात का एक मटका मिला। उसने ईमानदारी से वह मटका खेत के मालिक को दे दिया। उसकी ईमानदारी से खुश होकर खेत के मालिक ने उसके लिए एक अच्छा मकान बनवा दिया व आजीविका हेतु जमीन जायदात भी दे दी। अब वह अपनी ज़मीन पर खेती कर के खुशहाल जीवन व्यतीत करने लगी।

          जब वह शिष्य 6 महिने बाद घर लौटा तो देखकर हैरान हो गया और मन ही मन गुरुदेव के करुणा कृपा के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने लगा कि सद्गुरु ने मुझे यहाँ अहंकार मुक्त कर दिया। मै समझता था कि मैं नहीं कमाकर दूँगा तो मेरी पत्नी और बच्चों का क्या होगा ? करने वाला तो सब परमात्मा है। लेकिन झूठे अहंकार के कारण मनुष्य समझता है कि मैं करने वाला हूँ। वह अपने गुरूदेव के पास पहुँचा और उनके चरणों में पड़ गया। गुरुदेव ने उसे समझाते हुए कहा बेटा हर जीव का अपना अपना प्रारब्ध होता है और उसके अनुसार उसका जीवन यापन होता है। मैं भगवान के भजन में लग जाऊँगा तो मेरे घरवालों का क्या होगा ? मैं सब का पालन पोषण करता हूँ मेरे बाद उनका क्या होगा यह अहंकार मात्र है। वास्तव में जिस परमात्मा ने यह शरीर दिया है उसका भरण पोषण भी वही परमात्मा करता है।

                     जय श्री राधे कृष्णा जी🙏

हर हर महादेव lll

 *आज की अमृत कथा*


*#एक_और_झूठा_*

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अम्मा!.आपके बेटे ने मनीआर्डर भेजा है।"

डाकिया बाबू ने अम्मा को देखते अपनी साईकिल रोक दी। अपने आंखों पर चढ़े चश्मे को उतार आंचल से साफ कर वापस पहनती अम्मा की बूढ़ी आंखों में अचानक एक चमक सी आ गई..

"बेटा!.पहले जरा बात करवा दो।"

अम्मा ने उम्मीद भरी निगाहों से उसकी ओर देखा लेकिन उसने अम्मा को टालना चाहा..

"अम्मा!. इतना टाइम नहीं रहता है मेरे पास कि,. हर बार आपके बेटे से आपकी बात करवा सकूं।"

डाकिए ने अम्मा को अपनी जल्दबाजी बताना चाहा लेकिन अम्मा उससे चिरौरी करने लगी..

"बेटा!.बस थोड़ी देर की ही तो बात है।"

"अम्मा आप मुझसे हर बार बात करवाने की जिद ना किया करो!"

यह कहते हुए वह डाकिया रुपए अम्मा के हाथ में रखने से पहले अपने मोबाइल पर कोई नंबर डायल करने लगा..

"लो अम्मा!.बात कर लो लेकिन ज्यादा बात मत करना,.पैसे कटते हैं।"

उसने अपना मोबाइल अम्मा के हाथ में थमा दिया उसके हाथ से मोबाइल ले फोन पर बेटे से हाल-चाल लेती अम्मा मिनट भर बात कर ही संतुष्ट हो गई। उनके झुर्रीदार चेहरे पर मुस्कान छा गई।

"पूरे हजार रुपए हैं अम्मा!"

यह कहते हुए उस डाकिया ने सौ-सौ के दस नोट अम्मा की ओर बढ़ा दिए।

रुपए हाथ में ले गिनती करती अम्मा ने उसे ठहरने का इशारा किया..

"अब क्या हुआ अम्मा?"

"यह सौ रुपए रख लो बेटा!" 

"क्यों अम्मा?" उसे आश्चर्य हुआ।

"हर महीने रुपए पहुंचाने के साथ-साथ तुम मेरे बेटे से मेरी बात भी करवा देते हो,.कुछ तो खर्चा होता होगा ना!"

"अरे नहीं अम्मा!.रहने दीजिए।"

वह लाख मना करता रहा लेकिन अम्मा ने जबरदस्ती उसकी मुट्ठी में सौ रुपए थमा दिए और वह वहां से वापस जाने को मुड़ गया। 

अपने घर में अकेली रहने वाली अम्मा भी उसे ढेरों आशीर्वाद देती अपनी देहरी के भीतर चली गई।

वह डाकिया अभी कुछ कदम ही वहां से आगे बढ़ा था कि किसी ने उसके कंधे पर हाथ रखा..

उसने पीछे मुड़कर देखा तो उस कस्बे में उसके जान पहचान का एक चेहरा सामने खड़ा था।

मोबाइल फोन की दुकान चलाने वाले रामप्रवेश को सामने पाकर वह हैरान हुआ.. 

"भाई साहब आप यहां कैसे?. आप तो अभी अपनी दुकान पर होते हैं ना?"

"मैं यहां किसी से मिलने आया था!.लेकिन मुझे आपसे कुछ पूछना है।" 

रामप्रवेश की निगाहें उस डाकिए के चेहरे पर टिक गई..

"जी पूछिए भाई साहब!"

"भाई!.आप हर महीने ऐसा क्यों करते हैं?"

"मैंने क्या किया है भाई साहब?" 

रामप्रवेश के सवालिया निगाहों का सामना करता वह डाकिया तनिक घबरा गया।

"हर महीने आप इस अम्मा को भी अपनी जेब से रुपए भी देते हैं और मुझे फोन पर इनसे इनका बेटा बन कर बात करने के लिए भी रुपए देते हैं!.ऐसा क्यों?"

रामप्रवेश का सवाल सुनकर डाकिया थोड़ी देर के लिए सकपका गया!. 

मानो अचानक उसका कोई बहुत बड़ा झूठ पकड़ा गया हो लेकिन अगले ही पल उसने सफाई दी..

"मैं रुपए इन्हें नहीं!.अपनी अम्मा को देता हूंँ।"

"मैं समझा नहीं?"

उस डाकिया की बात सुनकर रामप्रवेश हैरान हुआ लेकिन डाकिया आगे बताने लगा...

"इनका बेटा कहीं बाहर कमाने गया था और हर महीने अपनी अम्मा के लिए हजार रुपए का मनी ऑर्डर भेजता था लेकिन एक दिन मनी ऑर्डर की जगह इनके बेटे के एक दोस्त की चिट्ठी अम्मा के नाम आई थी।"

उस डाकिए की बात सुनते रामप्रवेश को जिज्ञासा हुई..

"कैसे चिट्ठी?.क्या लिखा था उस चिट्ठी में?"

"संक्रमण की वजह से उनके बेटे की जान चली गई!. अब वह नहीं रहा।"

"फिर क्या हुआ भाई?" 

रामप्रवेश की जिज्ञासा दुगनी हो गई लेकिन डाकिए ने अपनी बात पूरी की..

"हर महीने चंद रुपयों का इंतजार और बेटे की कुशलता की उम्मीद करने वाली इस अम्मा को यह बताने की मेरी हिम्मत नहीं हुई!.मैं हर महीने अपनी तरफ से इनका मनीआर्डर ले आता हूंँ।"

"लेकिन यह तो आपकी अम्मा नहीं है ना?"

"मैं भी हर महीने हजार रुपए भेजता था अपनी अम्मा को!. लेकिन अब मेरी अम्मा भी कहां रही।" यह कहते हुए उस डाकिया की आंखें भर आई।

हर महीने उससे रुपए ले अम्मा से उनका बेटा बनकर बात करने वाला रामप्रवेश उस डाकिया का एक अजनबी अम्मा के प्रति आत्मिक स्नेह देख नि:शब्द रह गया।



दंडक  बन  प्रभु  कीन्ह  सुहावन।

जन मन अमित नाम किए पावन॥

निसिचर   निकर   दले   रघुनंदन।

नामु सकल कलि कलुष निकंदन॥

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           प्रभु श्रीराम जी ने भयानक दण्डक वन को सुहावना बनाया था, परन्तु नाम तो असंख्य मनुष्यों के मनों को पावन करने वाला है। श्रीरघुनन्दन जी ने पापीयों के दल का नाश किया था, लेकिन नाम तो कलियुग के समस्त पापों की जड़ को ही नाश करने वाला है।

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🌺🌼🌻🚩जय श्री सीतारामजी की🚩🌻🌼🌺

अयोध्या में आज का आधुनिक सुविधाएं

  राममंदिर परिसर राममय होने के साथ-साथ आधुनिक सुविधाओं से भी लैस होगा। रामलला के दरबार में रामभक्तों को दिव्य दर्शन की अनुभूति होगी। एक साथ ...