शनिवार, 25 दिसंबर 2021

 .                               "मित्रता"


          इन्द्र से वरदान में प्राप्त एक अमोघ शक्ति कर्ण के पास थी, इन्द्र का कहा हुआ था कि 'इस शक्ति को तू प्राण संकट में पड़कर एक बार जिस पर भी छोड़ेगा, उसी की मृत्यु हो जायगी, परंतु एक बार से अधिक इसका प्रयोग नहीं हो सकेगा।' कर्ण ने वह शक्ति अर्जुन को मारने के लिये रख छोड़ी थी। उसे रोज दुर्योधनादि कहते कि तुम उस शक्ति का प्रयोग कर अर्जुन को मार क्यों नहीं देते। वह कहता कि आज अर्जुन के सामने आते ही उसे जरूर मारूंगा, पर रण में अर्जुन के सामने आने पर कर्ण इस बात को भूल जाता और उसका प्रयोग न करता। कारण यही था कि अर्जुन का रथ सामने आते ही कर्ण को पहले भगवान् के दर्शन होते । भगवान् उसे मोहित कर लेते जिससे वह शक्ति छोड़ना भूल जाता। अर्जुन को इस शक्ति के सम्बन्ध में कोई पता नहीं था, परंतु भगवान् सारी बातें जानते थे और वे हर तरह से अर्जुन को बचाने और जिताने के लिये सचेष्ट थे। उन्होंने स्वयं ही सात्यकि से कहा था-


        अहमेव     तु     राधेयं     मोहयामि     युधांवर।

        ततो    नावासृजच्छक्तिं    पाण्डवे    श्वेतवाहने॥

        फाल्गुनस्य  हि सा  मृत्युरिति चिन्तयतोऽनिशम्।

        न  निद्रा  न  च  मे  हर्षों   मनसोऽस्ति  युधांवर॥

        न  पिता  न  च  में  माता  न  यूयं   भ्रातरस्तथा।

        न  च  प्राणस्तथा   रक्ष्या   यथा   बीभत्सुराहवे॥

        त्रैलोक्यरान्याद् यत्किञ्चिद् भवेदन्यत्सुदुर्लभम्।

        नेच्छेयं  सात्वताहं  तद् विना  पार्थं धनञ्जयम्॥

        अतः  प्रहर्षः   सुमहान्   युयुधानाद्य   मेऽभवत्।

        मृतं   प्रत्यागतमिव   दृष्ट्वा   पार्थं  धनञ्जयम्॥

                         (द्रोणपर्व १८२/४०-४१, ४३-४५)


          ‘सात्यकि! मैंने ही कर्ण को मोहित कर रखा था, जिससे वह श्वेत घोड़ों वाले अर्जुन को इन्द्र की दी हुई शक्ति से नहीं मार सका था। इस शक्ति के निमित्त कर्ण को अर्जुन का काल समझने के कारण मुझे रात को नींद नहीं आती थी और कभी मन प्रसन्न नहीं रहता था। मैं अपने माता-पिता की, तुम लोगों की, भाइयों की और अपने प्राणों की रक्षा करना भी उतना आवश्यक नहीं समझता, जितना रण में अर्जुन की रक्षा करना समझता हूँ। सात्यकि! तीनों लोकों के राज्यों की अपेक्षा भी कोई वस्तु अधिक दुर्लभ हो तो मैं उसे अर्जुन को छोड़कर नहीं चाहता। अतः युयुधान! आज अर्जुन मानो मरकर लौट आये हों, इस प्रकार इन्हें जीता-जागता देख मुझे बड़ा भारी हर्ष हो रहा है।' धन्य हैं।

          इसीलिये भगवान् ने भीम पुत्र घटोत्कच को रात के समय युद्धार्थ भेजा। घटोत्कच ने अपनी राक्षसी माया से कौरव सेना का संहार करते-करते कर्ण का नाकों दम कर दिया, दुर्योधन आदि सभी घबरा गये। सभी ने खिन्न मन से कर्ण को पुकार कर कहा कि बस आधी रात के समय यह राक्षस हम सबको मार ही डालेगा, फिर भीम-अर्जुन हमारा क्या करेंगे। अतएव तुम इन्द्र की शक्ति का प्रयोग कर इसे पहले मारो, जिससे हम सबके प्राण बचें। आखिर कर्ण को वह शक्ति घटोत्कच पर छोड़नी पड़ी। शक्ति लगते ही घटोत्कच मर गया। वीर-पुत्र घटोत्कच की मृत्यु देखकर सभी पाण्डवों की आँखों में आँसू भर आये, परंतु श्रीकृष्ण को बड़ी प्रसन्नता हुई, वे हर्ष से प्रमत्त-से होकर बार-बार अर्जुन को हृदय से लगाने लगे। अर्जुन ने कहा-'भगवन् ! यह क्या रहस्य है ? हम सबका तो धीरज छूटा जा रहा है और आप हँस रहे हैं ?' तब श्रीकृष्ण ने सारा भेद बताकर कहा कि 'प्रिय पार्थ ! इन्द्र ने तेरे हित के लिये कर्ण से कवच-कुण्डल ले लिये थे। बदले में उसे एक शक्ति दी थी, वह शक्ति कर्ण ने तेरे मारने के लिये रख छोड़ी थी। उस शक्ति के कर्ण के पास रहते मैं सदा तुझे मरा ही समझता था। मैं सत्य की शपथ खाकर कहता हूँ कि आज भी, शक्ति न रहने पर भी, कर्ण को तेरे सिवा दूसरा कोई नहीं मार सकता। वह ब्राह्मणों का भक्त, सत्यवादी, तपस्वी, व्रताचारी और शत्रुओं पर भी दया करने वाला है। मैंने घटोत्कच को इसी उद्देश्य से भेजा था। अर्जुन ! तेरे हित के लिये ही मैं यह सब किया करता हूँ। चेदिराज शिशुपाल, भील एकलव्य, जरासन्ध आदि को विविध कौशलों से मैंने इसीलिये मारा था, मरवाया था, जिससे वे महाभारत-समर में कौरव का पक्ष न ले सकें। वे आज जीवित होते तो तेरी विजय बहुत ही कठिन होती। फिर यह घटोत्कच तो ब्राह्मणों का द्वेषी, यज्ञद्वेषी, धर्म का लोप करनेवाला और पापी था। इसे तो मैं ही मार डालता, परंतु तुम लोगों को बुरा लगेगा, इसी आशंका से नहीं मारा। आज मैंने ही इसका नाश करवाया है-


          ये हि धर्मस्य  लोसारो वध्यास्ते  मम पाण्डव।

          धर्मसंस्थापनार्थं   हि  प्रतिज्ञेषा  मया  कृ ता॥

          ब्रह्म सत्यं दमः शौचं धर्मो ह्रीः श्रीधृतिः क्षमा।

          यत्र   तत्र   रमे   नित्यमहं   सत्येन   ते  शपे॥

                                (द्रोणपर्व १८१/२८,२९,३०)


          ‘जो पुरुष धर्म का नाश करता है, मैं उसका वध कर डालता हूँ। धर्म की स्थापना करना ही मेरी प्रतिज्ञा है। मैं यह शपथ खाकर कहता हूँ कि जहाँ ब्रह्म भाव, सत्य, इन्द्रियदमन, शौच, धर्म, (बुरे कर्मोमें) लज्जा, श्री, धैर्य और क्षमा हैं, वहाँ मैं नित्य निवास करता हूँ।'

          अभिप्राय यह है कि तुम्हारे अंदर ये सब गुण हैं, इसीलिये मैं तुम्हारे साथ हूँ और इसीलिये मैंने कौरवों का पक्ष त्याग रखा है, नहीं तो मेरे लिये सभी एक-से हैं। फिर तुम घटोत्कच के लिये शोक क्यों करते हो ? अपना पुत्र भी हो तो क्या हुआ, जो पापी है, वह सर्वथा त्याज्य है। इस प्रकार मित्र अर्जुन के प्राण और धर्म की भगवान् ने रक्षा की।

      "जय जय श्री राधे"।🙏🙏

 🍃🌻🍃🌻🍃🌻🍃🌻🍃

कुछ लोगों को ऊंचाई पर पहुँचने की इतनी ज्यादा जल्दी होती है कि ...

छोटे लोगों के हाथ पकड़ने के बजाय बड़े लोगों के पांव पकड़ लेते हैं।


   🍃🌻🙏🏻🌻🍃

  

 *शब्दों में धार नहीं,*

*बल्कि आधार होना चाहिए,*

*क्योंकि जिन शब्दों में धार होती है,वो मन को काटते है,*

*और जिन शब्दों में आधार होता है, वो मन को जीत लेते है..!

 *दक्षिणा का महत्व*


ब्राह्मणों की दक्षिणा हवन की पूर्णाहुति करके एक मुहूर्त ( 24 ) मिनट के अन्दर दे देनी चाहिये , अन्यथा मुहूर्त बीतने पर 100  गुना  बढ जाती है , और तीन रात बीतने पर एक हजार , सप्ताह बाद दो हजार ,महीने बाद एक लाख , और  संवत्सर बीतने पर तीन करोड गुना यजमान को देनी होती है । यदि नहीं दे तो उसके बाद उस यजमान का  कर्म निष्फल हो जाता है , और  उसे ब्रह्महत्या लग जाती है , उसके हाथ से किये जाने वाला हव्य - कव्य देवता और पितर कभी प्राप्त नहीं करते हैं । इसलिए  ब्राह्मणों की दक्षिणा जितनी जल्दी हो देनी चाहिये ।


👆यह जो कुछ भी कहा है सबका शास्त्रोॆ में प्रमाण है ।👇


मुहूर्ते समतीते तु , भवेच्छतगुणा च सा ।


त्रिरात्रे तद्दशगुणा , सप्ताहे द्विगुणा मता ।।


मासे लक्षगुणा प्रोक्ता ,ब्राह्मणानां च वर्धते ।


संवत्सर व्यतीते तु , त्रिकोटिगुणा भवेत् ।।


कर्म्मं तद्यजमानानां , सर्वञ्च निष्फलं भवेत् ।


सब्रह्मस्वापहारी च , न कर्मार्होशुचिर्नर: ।।


🚩इसलिए चाणक्य ने कहा """नास्ति यज्ञसमो रिपु: """ मतलब यज्ञादि कर्म विधि से सम्पन्न हो तब लाभ अन्यथा सबसे बडे शत्रु की तरह है ।


🚩गीता में स्वयं भगवान ने कहा 👇


विधिहीनमसृष्टान्नं , मन्त्रहीनमदक्षिणम् ।


श्रद्धाविरहितं यज्ञं , तामसं परिचक्षते ।।


🚩बिना सही विधि से बनाया भोजन जैसे परिणाम में नुकसान करता है , वैसे ही ब्राह्मण के बोले गये मन्त्र दक्षिणा न देने पर नुकसान करते हैं ।


🚩शास्त्र कहते हैं लोहे के चने या टुकडे भी व्यक्ति पचा सकता है परन्तु ब्राह्मणों के धन को नहीं पचा सकता है ।किसी भी उपाय से ब्राह्मणों का धन लेने वाला हमेशा दु:ख ही पाता है । इस पर एक कहानी सुनाता हूँ शास्त्रों में वर्णित 👇


🚩 महाभारत का युद्ध चल रहा था , युद्ध के मैदान में सियार , आदि हिंसक जीव  योद्धाओं के गरम -२ खून को पी रहे थे , इतने में ही धृष्टद्युम्न ने तलवार से पुत्रशोक से दु:खी निशस्त्र द्रोणाचार्य की गर्दन काट दी । तब द्रोणाचार्य के गरम -२ खून को पीने के लिए सियारिन दौडती है , तो सियार अपनी सियारिन से कहता है 👇


🚩प्रिये  """ विप्ररक्तोSयं गलद्दगलद्दहति """ 


👆यह ब्राह्मण का खून है इसे मत पीना , यह शरीर को गला- गला कर नष्ट कर देगा । तब उस सियारिन ने भी ब्राह्मण द्रोणाचार्य का रक्तपान नहीं किया ।


🚩ऋषि - मुनियों का कर के रुप में खून लेने पर ही रावण के कुल का संहार हो गया ।इसलिए जीवन में कभी भी ब्राह्मणों के द्रव्य का अपहरण किसी भी रुप में नहीं करना चाहिये ।


🚩वित्तशाट्ठ्यं न कुर्वीत, सति द्रव्ये फलप्रदम ।


अनुष्ठान , पाठ - पूजन जब भी करवायें ब्राह्मणों को उचित दक्षिणा देनी चाहिये , और दक्षिणा के अतिरिक्त उनके आने - जाने का किराया आदि -२ पूछकर अलग से देना चाहिये । 


🚩उसके बाद विनम्रता से ब्राह्मणों की वचनों द्वारा भी सन्तुष्टि करते हुए आशीर्वाद देना चाहिये , ऐसा करने पर ब्राह्मण मुँह से नहीं बल्कि हृदय से आशीर्वाद देता है , और तब यजमान का कल्याण होता है ।


🚩यत्र भुंड्क्ते द्विजस्तस्मात् , तत्र भुंड्क्ते हरि: स्वयम् ।।


*_👆 जिस घर में इस तरह श्रद्धा से ब्राह्मण भोजन करवाया जाता है , वहाँ ब्राह्मण के रुप में स्वयं भगवान ही भोजन करते हैं । इत्यलम् - बहुत बडा हो जायेगा । धन्यवाद , पढें और आचरण भी करे ।*

जय श्री कृष्णा जय जगन्नाथ

*🌹नारायण सेवा🌹*

  *🌹जय जय मां 🌹*

🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹

 *_🎷जय श्री राम_ 🎷*

*हम...*

     *प्रभु श्री राम का नाम संकट में ही नहीं लेते..!*  

    *_बल्कि.._*

      *हमेंशा राम नाम लेते रहते हैं जिससे "जिंदगी" में आने वाले "संकट" आसानी से टल जाते हैं...!!*

           *🕉️🦚🕉️*



पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रदं।

मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपूरं शुभम्‌।

श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये।

ते संसारपतंगघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः॥


भावार्थ:-यह श्री रामचरित मानस पुण्य रूप, पापों का हरण करने वाला, सदा कल्याणकारी, विज्ञान और भक्ति को देने वाला, माया मोह और मल का नाश करने वाला, परम निर्मल प्रेम रूपी जल से परिपूर्ण तथा मंगलमय है। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इस मानसरोवर में गोता लगाते हैं, वे संसाररूपी सूर्य की अति प्रचण्ड किरणों से नहीं जलते।

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🌺🌼🌻🚩जय श्री सीतारामजी की🚩🌻🌼🌺

 *मनुष्य के कर्मों का साक्षी कौन है ?*


मृत्युलोक में प्राणी अकेला ही पैदा होता है, अकेले ही मरता है। प्राणी का धन-वैभव घर में ही छूट जाता है। मित्र और स्वजन श्मशान में छूट जाते हैं। शरीर को अग्नि ले लेती है। पाप-पुण्य ही उस जीव के साथ जाते हैं। अकेले ही वह पाप-पुण्य का भोग करता है परन्तु धर्म ही उसका अनुसरण करता है।


‘शरीर और गुण (पुण्यकर्म) इन दोनों में बहुत अंतर है, क्योंकि शरीर तो थोड़े ही दिनों तक रहता है किन्तु गुण प्रलयकाल तक बने रहते हैं। जिसके गुण और धर्म जीवित हैं, वह वास्तव में जी रहा है।’


*पाप और पुण्य*


वेदों में जिन कर्मों का विधान है, वे धर्म (पुण्य) हैं और उनके विपरीत कर्म अधर्म (पाप) कहलाते हैं। मनुष्य एक दिन या एक क्षण में ऐसे पुण्य या पाप कर सकता है कि उसका भोग सहस्त्रों वर्षों में भी पूर्ण न हो।


*मनुष्य के कर्म के चौदह साक्षी*


सूर्य, अग्नि, आकाश, वायु, इन्द्रियां, चन्द्रमा, संध्या, रात, दिन, दिशाएं, जल, पृथ्वी, काल और धर्म–ये सब मनुष्य के कर्मों के साक्षी हैं।


सूर्य रात्रि में नहीं रहता और चन्द्रमा दिन में नहीं रहता, जलती हुई अग्नि भी हरसमय नहीं रहती; किन्तु रात-दिन और संध्या में से कोई एक तो हर समय रहता ही है। दिशाएं, आकाश, वायु, पृथ्वी, जल सदैव रहते हैं, मनुष्य इन्हें छोड़कर कहीं भाग नहीं सकता, इनसे छुप नहीं सकता। मनुष्य की इन्द्रियां, काल और धर्म भी सदैव उसके साथ रहते हैं। कोई भी कर्म किसी-न किसी इन्द्रिय द्वारा किसी-न-किसी समय (काल) होगा ही। उस कर्म का प्रभाव मनुष्य के ग्रह-नक्षत्रों व पंचमहाभूतों पर पड़ता है। जब मनुष्य कोई गलत कार्य करता है तो धर्मदेव उस गलत कर्म की सूचना देते हैं और उसका दण्ड मनुष्य को अवश्य मिलता है।


*कर्म से ही देह मिलता है*


पृथ्वी पर जो मनुष्य-देह है उसमें एक सीमा तक ही सुख या दु:ख भोगने की क्षमता है। जो पुण्य या पाप पृथ्वी पर किसी मनुष्य-देह के द्वारा भोगने संभव नही, उनका फल जीव स्वर्ग या नरक में भोगता है। पाप या पुण्य जब इतने रह जाते हैं कि उनका भोग पृथ्वी पर संभव हो, तब वह जीव पृथ्वी पर किसी देह में जन्म लेता है।


कर्मों के अवशेष भाग को भोगने के लिए मनुष्य मृत्युलोक में स्थावर-जंगम अर्थात् वृक्ष, गुल्म (झाड़ी), लता, बेल, पर्वत और तृण–आदि योनि प्राप्त करता है। ये सब दु:खों के भोग की योनियां हैं। वृक्षयोनि में दीर्घकाल तक सर्दी-गर्मी सहना, काटे जाने व अग्नि में जलाये जाने सम्बधी दु:ख भोगना पड़ता है। यदि जीव कीटयोनि प्राप्त करता है तो अपने से बलवान प्राणियों द्वारा दी गयी पीड़ा सहता है, शीत-वायु और भूख के क्लेश सहते हुए मल-मूत्र में विचरण करना आदि दारुण दु:ख उठाता है। इसी तरह से पशुयोनि में आने पर अपने से बलवान पशु द्वारा दी गयी पीड़ा का कष्ट पाता रहता है। पक्षी की योनि में आने पर कभी वायु पीकर रहना तो कभी अपवित्र वस्तुओं को खाने का कष्ट उठाना पड़ता है। यदि भार ढोने वाले पशुओं की योनि में जीव आता है तो रस्सी से बांधे जाने, डण्डों से पीटे जाने व हल जोतने का दारुण दु:ख जीव को सहना पड़ता है।


*विभिन्न पापयोनियां*


इस संसार-चक्र में मनुष्य घड़ी के पेण्डुलम की भांति विभिन्न पापयोनियों में जन्म लेता और मरता है–


–माता-पिता को कष्ट पहुंचाने वाले को कछुवे की योनि में जाना पड़ता है।


–मित्र का अपमान करने वाला गधे की योनि में जन्म लेता है।


–छल-कपट कर जीवनयापन करने वाला बंदर की योनि में जाता है।


–अपने पास रखी किसी की धरोहर को हड़पने वाला मनुष्य कीड़े की योनि में जन्म लेता है।


–विश्वासघात करने से मनुष्य को मछली की योनि मिलती है।


–विवाह, यज्ञ आदि शुभ कार्यों में विघ्न डालने वाले को कृमियोनि मिलती है।


–देवता, पितर व ब्राह्मणों को भोजन न कराकर स्वयं खा लेता है वह काकयोनि (कौए) में जाता है।


*दुर्लभ है मनुष्ययोनि*


इस प्रकार बहुत-सी योनियों में भ्रमण करके जीव किसी महान पुण्य के कारण मनुष्ययोनि प्राप्त करता है। मनुष्ययोनि प्राप्त करके भी यदि दरिद्र, रोगी, काना या अपाहिज जीवन मिले तो बहुत अपमान व कष्ट भोगना पड़ता है।


इसलिए दुर्लभ मनुष्य जन्म पाकर संसार-बंधन से मुक्त होने के लिए प्राणी को भगवान कृष्ण की सेवा-आराधना करनी चाहिए क्योंकि वे ही कर्मफल के दाता व संसार-बंधन से छुड़ाने वाले मोक्षदाता हैं। भगवान विष्णु के जो-जो स्वरूप हैं, उनकी भक्ति करने से मनुष्य संसार-सागर आसानी से पार कर परमधाम को प्राप्त करता है।


भगवान विष्णु ने बताया संसार-सागर से पार होने का उपाय


भगवान विष्णु ने संसार-सागर से पार होने का उपाय भगवान रुद्र को बताते हुए कहा कि ‘विष्णुसहस्त्रनाम’ स्तोत्र से मेरी नित्य स्तुति करने से मनुष्य भवसागर को सहज ही पार कर लेता है।


‘जिनका मन भगवान विष्णु की भक्ति में अनुरक्त है, उनका अहोभाग्य है, अहोभाग्य है; क्योंकि योगियों के लिए भी दुर्लभ मुक्ति उन भक्तों के हाथ में ही रहती है।’ (नारदपुराण)


*भक्तों की गति*


भक्त अपने आराध्य के लोक में जाते हैं। भगवान के लोक में कुछ भी बनकर रहना सालोक्य-मुक्ति है। भगवान के समान ऐश्वर्य प्राप्त करना सार्ष्टि-मुक्ति है। भगवान के समान रूप पाकर वहां रहना सारुप्य-मुक्ति है। भगवान के आभूषणादि बनकर रहना सामीप्य-मुक्ति कहलाती है। भगवान के श्रीविग्रह में मिल जाना सायुज्य-मुक्ति है।


जिस जीव को भगवान का धाम प्राप्त हो जाता है, वह भगवान की इच्छा से उनके साथ या अलग से संसार में दिव्य जन्म ले सकता है। वह कर्मबन्धन में नहीं बंधा होता है। संसार में भगवत्कार्य समाप्त करके वह पुन: भगवद्धाम चला जाता है।


*मुक्त पुरुष*


मनुष्य बिना कर्म किए रह नहीं सकता। कर्म करेगा तो पाप-पुण्य दोनों होंगे। लेकिन जो मनुष्य सबमें भगवत्दृष्टि रखकर भगवान की सेवा के लिए, उनकी आज्ञा का पालन करने के लिए और भगवान की प्रसन्नता के लिए कर्म करता है तो उसके कर्म भी अकर्म बन जाते हैं और कर्म-बंधन में नहीं बांधते हैं। वह संसार में रहते हुए भी नित्यमुक्त है।


तत्त्वज्ञानी पुरुष संसार के आवागमन से मुक्त हो जाते हैं। उनके प्राण निकलकर कहीं जाते नहीं बल्कि परमात्मा में लीन हो जाते हैं। सती स्त्रियां, युद्ध में मारे गए वीर और उत्तरायण के शुक्ल-मार्ग से जाने वाले योगी मुक्त हो जाते हैं।


*गीता में शुक्ल तथा कृष्ण मार्ग कहकर दो गतियों का वर्णन है*


जिनमें वासना शेष है, वे धुएं, रात्रि, कृष्णपक्ष, दक्षिणायन के देवताओं द्वारा ले जाए जाते हैं। ऊर्ध्वलोक में अपने पुण्य भोगकर वे फिर पृथ्वी पर जन्म लेते हैं।

जिनमें कोई वासना शेष नहीं है, वे अग्नि, दिन, शुक्लपक्ष, उत्तरायण के देवताओं द्वारा ले जाये जाते हैं। वे फिर पृथ्वी पर जन्म लेकर नहीं लौटते हैं।


*पितृलोक*


यह एक प्रकार का प्रतीक्षालोक है। एक जीव को पृथ्वी पर जिस माता-पिता से जन्म लेना है, जिस भाई-बहिन व पत्नी को पाना है, जिन लोगों के द्वारा उसे सुख-दु:ख मिलना है; वे सब लोग अलग-अलग कर्म करके स्वर्ग या नरक में हैं। जब तक वे सब भी इस जीव के अनुकूल योनि में जन्म लेने की स्थिति में न आ जाएं, इस जीव को प्रतीक्षा करनी पड़ती है। पितृलोक इसलिए एक प्रकार का प्रतीक्षालोक है।


*प्रेतलोक*


यह नियम है कि मनुष्य की अंतिम इच्छा या भावना के अनुसार ही उसे गति प्राप्त होती है। जब मनुष्य किसी प्रबल राग-द्वेष, लोभ या मोह के आकर्षण में फंसकर देह त्यागता है तो वह उस राग-द्वेष के बंधन में बंधा आस-पास ही भटकता रहता है। वह मृत पुरुष वायवीय देह पाकर बड़ी यातना भरी योनि प्राप्त करता है। इसीलिए कहा जाता है– *‘अंत मति सो गति।’*


🙏🌷जय श्री राम 🌷🙏

अयोध्या में आज का आधुनिक सुविधाएं

  राममंदिर परिसर राममय होने के साथ-साथ आधुनिक सुविधाओं से भी लैस होगा। रामलला के दरबार में रामभक्तों को दिव्य दर्शन की अनुभूति होगी। एक साथ ...