बुधवार, 27 दिसंबर 2023

अयोध्या में आज का आधुनिक सुविधाएं

 राममंदिर परिसर राममय होने के साथ-साथ आधुनिक सुविधाओं से भी लैस होगा। रामलला के दरबार में रामभक्तों को दिव्य दर्शन की अनुभूति होगी। एक साथ पांच हजार भक्त रामलला की परिक्रमा कर सकेंगे। परिसर में वेदशाला, यज्ञशाला, रामवन, रामम्यूजियम, रामरसोई सहित यात्री सुविधाओं का बेहतर इंतजाम भी होगा।


अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के साथ-साथ परिसर के विकास के लिए श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट की ओर से एक परिकल्पना तैयार की गई है। श्रीराम मंदिर परिसर को खास बनाया जा रहा है ताकि जब रामभक्त परिसर में प्रवेश करें तो उन्हें इस बात का अहसास हो कि वह श्रीराम जन्मभूमि धाम में हैं।
इसके लिए उस परिसर में कई महत्वपूर्ण निर्माण भी किये जाएंगे। इन्हीं में एक है मंदिर परिसर में प्रवेश के लिए चार भव्य द्वार। मंदिर परिसर में राम मंदिर के साथ ही परिक्रमा पथ बनेगा। सूत्रों के मुताबिक श्रद्धालु रामलला के दर्शन के बाद उनकी परिक्रमा कर सकेंगे। एक वक्त में 5,000 से अधिक श्रद्धालु एक साथ परिक्रमा कर सकेंगे। श्रीराम जन्मभूमि मंदिर परिसर विकास परिकल्पना के अनुसार शेषावतार मंदिर को भी भव्य रूप दिया जाएगा।
अभी ये अपूर्ण है। श्रीराम के अनुज लक्ष्मण को शेषावतार माना जाता है यानी जहां प्रभु श्रीराम होंगे वहीं पर लक्ष्मण जी जरूर विराजेंगे। परिसर में एक वृहद यज्ञशाला भी होगी, क्योंकि सनातन परंपरा के अनुरूप यज्ञ किये जाने का विधान है। माना जाता है कि कलयुग में यज्ञ एक ऐसा साधन है जिससे मनुष्य अपने पापों के निवारण और प्रभु के समीप होने की कल्पना कर सकता है। मंदिर परिसर में एक विशाल म्यूजियम बनाया जाएगा।
परिसर विकास परिकल्पना के अनुसार इसमें प्रभु श्रीराम से जुड़े शिलालेख, पत्थर, मंदिर होने के सबूत वाली वस्तुए रखी जाएंगी। इसमे राम मंदिर आंदोलन से जुड़ी यादगार वस्तुओं को भी रखे जाने की संभावना है। समतलीकरण और उत्खनन में मिले शिलालेख व पुरावशेष भी रखे जाएंगे। मंदिर निर्माण से जुड़े बड़े अधिकारियों का मानना है कि अभी हर साल लगभग 1 करोड़ तीर्थयात्री और भक्तगण अयोध्या आते हैं। ऐसे में जो भी निर्माण होगा वो अगले 50 साल को ध्यान में रखकर किया जाएगा। जाहिर है वर्षों की तपस्या, त्याग और बलिदान के बाद बन रहे श्रीराम मंदिर की भव्यता ऐसी होगी, जिसे पूरी दुनिया निहारेगी

शनिवार, 25 दिसंबर 2021



उभय अगम जुग सुगम नाम तें।

कहेउँ  नामु  बड़  ब्रह्म  राम  तें॥

ब्यापकु  एकु   ब्रह्म  अबिनासी।

सत  चेतन   घन  आनँद  रासी॥

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     निर्गुण और सगुण ब्रह्म दोनों ही जानने में सुगम नहीं हैं, लेकिन नाम जप से दोनों को आसानी से जाना जा सकता हैं, इसी कारण मैंने "राम" नाम को निर्गुण ब्रह्म और सगुण ब्रह्म राम से बड़ा कहा है, जबकि ब्रह्म एक ही है जो कि व्यापक, अविनाशी, सत्य, चेतन और आनन्द की खान है।

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🌺🌼🌻🚩जय श्री सीतारामजी की🚩🌻🌼🌺

 *****! श्री राम!*****

रामाय राम भद्राय रामचंद्राय वेधसे !

रघुनाथाय नाथाय सीताया: पतये नमः!

रामं रामानुजं सीतां भरतं भरतानुजम !

सुग्रीवं वायुसूनुं च प्रणमामि पुनः पुनः! 

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*******रामायण महाकाव्य*******


रामायणं महाकाव्यं सर्ववेदेषु सम्मति !

सर्वपाप प्रशमनं दुष्ट ग्रह निवारणम!


अर्थात***सूत जी कहते हैं कि मुनियों!

देवर्षि नारद जी ने श्री सनत कुमारों को जिस रामायण नामक महाकाव्य का गान सुनाया था वह समस्त पापों का नाश और दुष्ट ग्रहों के बाधा का निवारण करने वाला है और वह संपूर्ण वेद के तत्वों से अनुकूल और सम्मति वान है!

वरं वरेण्यं वरदं तु काव्यं संतारयत्याशु च सर्वलोकम!

संकल्पितार्थ प्रदमादिकाव्यं श्रुत्वा च रामस्य पदं प्रयाति!!


अर्थात श्री रामायण महाकाव्य अत्यंत उत्तम वरणीय और मनोवांछित वर देने वाला है! श्री रामायण का उत्तम पाठ और श्रवण करने वाले समस्त जगत को शीघ्र ही संसार सागर से पार कर देता है श्री रामायण को सुनकर मनुष्य श्री रामचंद्र जी के परम पद को प्राप्त कर लेता है!


कथा रामायणस्यापि नित्यं भवति यदगृहे!

तद् गृहं तीर्थरुपं हि दुष्टानां पापनाशनम!


इसलिए जिस घर में नित्य प्रतिदिन रामायण की कथा होती है या रामायण का पाठ होता है वह घर दुष्टों के पापों से मुक्त होकर तीर्थ बन जाता है इसलिए रामायण ही भगवान का वांग्मयी स्वरूप है अपने हृदय में प्रभु को धारण कर इसका श्रवण पठान और पूजन अवश्य करें और प्रभु से प्रेम करने के लिए श्री राम नाम का संकीर्तन जरूर करें!

रघुपति राघव राजाराम पतित पावन सीताराम!

सीताराम सीताराम सीताराम जय सीताराम

सीताराम सीताराम सीताराम जय सीताराम

जय रघुनंदन जय सियाराम जानकी वल्लभ तुम्हें प्रणाम!

बंदहु राम लखन वैदेही जय तुलसी के परम स्नेही!

श्री राम जय राम जय जय राम श्री राम जय राम जय जय राम!*********सादर जय सियाराम



अस प्रभु हृदयँ अछत अबिकारी।

सकल  जीव  जग  दीन  दुखारी॥

नाम   निरूपन   नाम   जतन   तें।

सोउ  प्रगटत जिमि  मोल रतन तें॥

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      समस्त विकारों से मुक्त भगवान सभी के हृदय में रहते हैं फिर भी संसार के सभी जीव दीन हीन और दुःखी हैं। नाम के यथार्थ स्वरूप, महिमा, रहस्य और प्रभाव को जानकर श्रद्धा-पूर्वक नाम जपने से ब्रह्म उसी प्रकार प्रकट हो जाता है, जिस प्रकार रत्न की जानकारी होने से उसका मूल्य प्रकट हो जाता है।

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🌺🌼🌻🚩जय श्री सीतारामजी की🚩🌻🌼🌺


*देह की ममता में ही सभी की ममतायें निहित हैं और देह का विश्व से विभाजन हो नहीं सकता!*

*!! ॐ श्री हरि: शरणम् !!*

🍁🌻🙏🌻🍁



निरगुन तें एहि भाँति बड़ नाम प्रभाउ अपार।

कहउँ नामु बड़ राम तें निज बिचार अनुसार॥

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     इस प्रकार निर्गुण ब्रह्म से नाम का प्रभाव अत्यंत बड़ा है। अब अपने विचार के अनुसार कहता हूँ, कि नाम सगुण ब्रह्म राम से भी बड़ा है।

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🌺🌼🌻🚩जय श्री सीतारामजी की🚩🌻🌼🌺

 भाई-बहनों, आन्जनेय नन्दन श्री बजरंग बली के विषय में गोस्वामी श्री तुलसीदास जी ने हनुमान चालीसा में जो, "चारो जुग परताप तुम्हारा" का उल्लेख किया है, सज्जनों! इसी विषय पर विचार करते हैं कि श्री मारूति नन्दन सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलयुग में कब-कब कहाँ-कहाँ, किस-किस, स्वरूप में किन-किन चरित्रों से युक्त थे। 


अन्जनी गर्भ सम्भूतोवायु पुत्रों महावल।

कुमारो वृह्मïचारिश्च हनुमन्ताय नमोनम:।।


सर्वप्रथम, सतयुग की चर्चा करते हैं- इस युग में पवन पुत्र भगवान श्री शंकरजी के स्वरूप से विश्व में अवस्थित थे, तभी तो इन्हें (रूद्रावतार) शिव स्वरूप लिखा और कहा गया है, गौस्वामी श्री तुलसीदासजी ने हनुमान चालीसा में ही "शंकर सुवन केसरी नन्दन" कह कर सम्बोधित किया है।


इतना ही नहीं जब-जब भगवान शंकरजी माता उमा को रामकथा सुनाते हैं, और उस राम चरित्र में जहाँ कहीं भी हनुमानजी का चरित्र आता है, तब-तब भोलेनाथ स्वयं सावधान होकर और मन को भी समाहित करके हनुमानजी का चरित्र कहते हैं, उस की एक झलक देखियें।

 

सावधान पुनि मन कर शंकर।

लागे कहन कथा अति सुन्दर॥

 

इस चोपाई का यह प्रसंग लंका दहन का है, लंका दहन के बाद  हनुमान जी महाराज प्रभु श्री राघवेन्द्र सरकार के चरणों में वन्दन करते हैं, और प्रभु उनको  हृदय से लगाते हैं, तब भोलेनाथ कितने प्रसन्न हो जाते हैं, उसकी झलक उक्त चोपाई में दिखाई पड़ती हैं। 


देखियें ऋष्यमूक पर्वत के मैदानी भाग में जब प्रथम वार राम और लक्ष्मण के साथ में हनुमानजी का मिलन होता है, तब प्रभु के द्वारा अपना परिचय देने पर केसरी नन्दन उनके पावन पगों में जब गिरते हैं, तो फिर भोलेनाथ गिरिजा से कह ही तो उठते हैं।

 

प्रभु पहिचान गहेउ पहि चरना।

से सुख उमा जाहिं नहिं वरना॥

  

इस प्रकार के अपने स्वरूप का वर्णन भोलेनाथ पार्वतीजी से करते हैं, अत: यह प्रमाणित है, कि श्री हनुमानजी सतयुग में शिवरूप में रहते हैं, त्रेतायुग में तो पवनपुत्र श्रीरामजी की छाया हैं, इनके बिना सम्पूर्ण चरित्र पूर्ण होता ही नहीं, 


श्रीरामजी भरतजी, सीताजी, सुग्रीव, विभिषण आदि और सम्पूर्ण कपि मण्डल और कोई भी उनके ऋण से मुक्त अर्थात उऋण नहीं हो सकते, इस प्रकार त्रेतायुग में तो हनुमानजी साक्षात विराजमान है, द्वापर युग में बजरंगबली अर्जुन के रथ पर विराजित हैं, इसका बड़ा ही सुन्दर प्रसंग है। 


एक बार किसी तीर्थाटन में अकस्मात ही अर्जुन का हनुमानजी से मिलन हो जाता है, और भक्त जब भक्त से मिलता है तो निश्चय ही भागवत चर्चा प्रारम्भ हो जाती है, तभी हनुमानजी से अर्जुन ने पुछा- राम और रावण के युद्घ के समय तो आप थे, हनुमानजी बोले में केवल उपस्थित ही नहीं था? किन्तु युद्घ भी कर रहा था। 


तभी अर्जुन ने कहा आपके स्वामी मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीरामजी तो बड़े ही श्रेष्ठ धनुषधारी थे, फिर उन्हें समुद्र पार जाने के लिए पत्थरों का सेतू बनवाने की क्या आवश्यकता थी, यदि में वहाँ उपस्थित होता तो समुद्र पर बाणों का पुल बना देता,  जिससे आपका पूरा वानर दल पार होता। 


तभी हनुमानजी ने कहा असम्भव, बाणों का पुल वहाँ पर कोई काम नहीं कर पाता, हमारा यदि एक भी वानर चढ़ता तो वाणों का पुल छिन्न-भिन्न हो जाता, अर्जुन ने कहा- नहीं, देखो ये सामने सरोवर हैं, में उस पर बाणों के पुल का निर्माण करता हूँ, आप इस पर चढ़ कर सरोवर को पार कर जाओगे, यदि आपके चलने से पुल टूट जायेगा तो में अग्नि में प्रवेश कर लूँगा।


यदि नहीं टूटता है तो आपको अग्नि में प्रवेश करना पड़ेगा, हनुमानजी बोले मुझे स्वीकार है, तब अर्जुन ने अपने प्रचंड बाणों से पुल तैयार कर दिया, जब तक पुल बन कर तैयार नहीं हुआ तब तक तो हनुमानजी अपने लघु रूप में ही रहे, लेकिन पुल के बन जाने पर हनुमानजी महाराज ने अपना रूप भी उसी समय का सा कर लिया, जैसा तुलसीदासजी ने राम चरित मानस में वर्णन किया है।


कनक भूदरा कार शरीरा। 

समय भयंकर अति बल वीरा॥

 

रामजी का स्मरण करके हनुमानजी महाराज उस बाणों के पुल पर चढ़ गयें, पहला पग रखते ही पुल सारा का सारा डगमगाने लगा, दूसरा पैर रखते ही चरमराया, किन्तु पुल टूटा नहीं, और तीसरा पैर रखते ही पूरा पुल ध्वस्त होकर सरोवर में समा गया, तभी हनुमानजी महाराज पुल से नीचे उतर आयें और अर्जुन से कहा कि अग्नि तैयार करो। 


अग्नि प्रज्‍वलित हुई, जैसे ही अर्जुन अग्रि में कूदने चले वैसे लीला पुरूषोत्तम श्रीकृष्ण प्रकट हो गयें और बोले ठहरो, तभी अर्जुन और हनुमानजी ने प्रणाम किया, इस पर प्रभु ने कहा क्या वाद विवाद चल रहा है? बताओ, इस पर अर्जुन ने सारा प्रसंग सुनाया, तब अर्जुन से भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा कि यह सब मेरी इच्छा से ही हुआ है।


यह सुनकर अर्जुन ने क्षमा मांगी, मैं तो बड़ा अपराधी निकला, मेरा ये अपराध कैसे दूर हो तब दयालु प्रभु ने कहा ये सब मेरी इच्छा से हुआ है, आप मन खिन्न मत करो, मेरी आज्ञा है, कि हनुमानजी अर्जुन के रथ और ध्वजा पर स्थान ग्रहण करें, इसलिये द्वापर में  हनुमानजी महाराज अर्जुन के ध्वजा पर स्थिति थे, ये द्वापर का प्रसंग रहा।

 

यत्र-यत्र रघुनाथ कीर्तन तत्र कृत मस्तकान्जलिम्। 

वाष्प वारि परिपूर्ण लोचनं मारूतिं नमत राक्षसान्तकम्।।

 

कलियुग में जहाँ-जहाँ भगवान श्रीरामजी की कथा कीर्तन होते हैं, वहाँ हनुमान जी गुप्त रूप में विराजमान रहते हैं, हनुमानजी महाराज कलियुग में गन्धमादन पर्वत पर निवास करते हैं ऐसा श्रीमद भागवत में वर्णन आता है, सीताजी के वचनों के अनुसार-


अजर अमर गुन निधि सुत होऊ।

करहु बहुत रघुनायक छोऊ।।

 

अत्यन्त बलशाली, परम पराक्रमी, जितेन्द्रिय, ज्ञानियों में आग्रगण्य तथा भगवान् राम के अनन्य-भक्त श्रीहनुमानजी का जीवन समाज के लिये सदा से प्ररेणादायक रहा है, वे वीरता की साक्षात् प्रतिमा है, एवम शक्ति तथा बल-पराक्रम की जीवन्त मूर्ति, भारतीय मल्ल-विद्या के यही आराध्य है, आप कभी अखाड़ों में जायें तो वहाँ आपको किसी दीवार के आले में या छोटे -मोटे मन्दिर में प्रतिष्ठिïत महावीर की प्रतिमा अवश्य मिलेगी, उनके चरणों का स्पर्श और नाम स्मरण करके ही पहलवान अपना कार्य शुरू करते हैं।


भाई-बहनों, हनुमानजी महाराज परम कृपालु भक्त की पुकार पर सद्य प्रभावेण रक्षा करते है, तल्लीनता से आर्त भाव से पुकारते ही भक्त को अपनी उपस्तिथि का विश्वाश इस घोर कलयुग मेँ भी कराते है, मेरे जीवन के अनुभव से मै ये निवेदन करबद्ध हो कर कर रहा हूँ, भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैँ- "संशय आत्मा विनश्यति" अपनी बुद्धि बल को बजरँगबली के चरणों मेँ अर्पित कर प्रेम से बोलो- जय श्री रामजी!!


जय श्री हनुमानजी!

 ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

 

जय श्री हरि: स्मरणम्

 *जय श्री राम*

*''सत्य को इच्छा होती है'' कि...''सब उसे जान ले'' और असत्य को हमेशा डर लगता है... कि... ''कोई उसे पहचान न ले''*


*आपका दिन मंगलमय हो*

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                 *"ॐ श्री हनुमते:नम:"*

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              *मनोजवं मारुततुल्यवेगं*

           *जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम्‌।* 

            *वातात्मजं वानरयूथमुख्यं*

             *श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये॥*

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                             कोई

                         भी रिश्ता

                     बड़ी-बड़ी बातें

                 करने से नहीं बल्कि..

           छोटी-छोटी बातों को समझने

                  से सच्चा और गहरा

                           होता है।

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💐 ॐ हनुमंते नमः💐


अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं

दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्। सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं

रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि॥

💐 जय श्रीराम💐

 *जय श्री राम*

*आने वाला कल कभी नही आता* ,, 

*वो जब भी आता है तो आज बनकर* *ही आता है* ,, 

*इसलिए आने वाले कल में जो भी* *अच्छा करने की चाह हो ,, उसकी* *शुरुआत आज से ही करना चाहिए* .. 


*शुभ प्रभात......*

*आपका दिन शुभ हो*

 *विषादप्यमृतं ग्राह्यं बालादपि सुभाषितम्।*

*अमित्रादपि सद्वृत्तं अमेध्यादपि कांचनम्॥*



*भावार्थ-- विष से भी मिले तो अमृत को स्वीकार करना चाहिए, छोटे बच्चे से भी मिले तो सुभाषित (अच्छी सीख) को स्वीकार करना चाहिए, शत्रु से भी मिले तो अच्छे गुण को स्वीकार करना चाहिए और गंदगी से भी मिले तो सोने को स्वीकार करना चाहिए।*


     

*┈┉❀꧁ जय जय श्री राम जी ꧂❀┉┈*..


*┈┉❀꧁सुप्रभात वन्दन ꧂❀┉┈*..

 सच्चिदानन्द रूपाय विश्वोत्पत्यादि हेतवे।

तापत्रय विनाशाय श्री कृष्णाय वयम नुमः।।


जिसका स्वरूप सच्चिदानन्द है, जो इस समस्त विश्वकी उत्पत्ति, पालन एवं संहार करते है, जो उसके भक्तो के लिए तीनो ताप का विनाश करते है, हम सभी वोह श्री राधा कृष्ण को नमन करते हैं।


सत –

      नित्य एवं शास्वत. प्रश्न: सत एवं असत में क्या अंतर है? उत्तर: सत वोह है जिसमे परिवर्तन नहीं होता है. वेदांत दर्शन में सत्य की व्याख्या यही है की जो तत्त्व परिवर्तनशील है वोह नाशवंत है अपितु सत्य नहीं, परन्तु जो प्राकृतिक बंधनों से पर है एवं परिवर्तनशील नहीं है, वोह ही सत्य हो सकता है।भगवद गीता में भी भगवान श्री कृष्ण कहते हैं---

        नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।

        उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः।।


असत् वस्तु का तो अस्तित्व नहीं है और सत् का कभी अभाव नहीं है। इस प्रकार इन दोनों का ही तत्त्व,  तत्त्वदर्शी ज्ञानी पुरुषों के द्वारा देखा गया है।


चित –

        शुद्ध चैतन्य।


आनंद – 

       परम विलास।

प्रश्न--

      सुख एवं आनंद में भेद है?


उत्तर--

       जी है, सुख इस संसार जगत के साथ द्वंद बंधनों से पर नहीं है, क्यूंकि सुख, दुःख के साथ बंधा हुआ है, जेसे हर्ष और शोक, ठंड और गर्मी, ऐसा ही इस संसार माया में द्वंद है परन्तु जो वेदिक शास्त्र जब आनंद की व्याख्या देते हे वोह इस संसार की अनुभूतियो के पर है जिसमे द्वन्द कदापि नहीं है.


रूपाय – 

       जिसका स्वरूप है।


विश्व –

      इस सकल संसार जिसमे सभी जल, पृथ्वी, वायु, तेज, अग्निसे बनाया गया है और सर्व सांख्य दर्शन के तत्त्वों जिसका उल्लेख श्रीमद्भागवत महापुराण में विस्तारपूर्वक रचना हुई है ।महाऋषि कपिल और माता देवहुति के संवाद में


उत्पति –

     प्रारम्भ,निर्माण।


प्रश्न--

    कृष्ण के पहले और कुछ था? 


उत्तर--

     नहीं।

श्रीमद भागवतमें भगवान कहते है-- -

        अहमेवासमेवाग्रे नान्यद  यत सदसत परम।

        पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम।।


सृष्टि के आरम्भ होने से पहले केवल मैं ही था, सत्य भी मैं था और असत्य भी मैं था, मेरे अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं था। सृष्टि का अन्त होने के बाद भी केवल मैं ही रहता हूँ, यह चर-अचर सृष्टि स्वरूप केवल मैं हूँ और जो कुछ इस सृष्टि में दिव्य रूप से स्थित है वह भी मैं हूँ, प्रलय होने के बाद जो कुछ बचा रहता है वह भी मै ही होता हूँ।

यह प्रमाण हे के भगवान कृष्ण के अलावा कुछ नहीं था. वोही इस इस सकल संसार के रचेता है।


आदि –

       वगेरे, का पोषण एवं संहार, इस शब्द जब हम श्लोक के स्थूल रूप में लिया तो शब्दार्थ होता है ‘वगेरे’, परन्तु जब हम उसके भावार्थ को समजे तो लिखा हुआ है ‘पोषण एवं संहार’. क्यूंकि उत्पत्ति की पहले व्याख्या की है तो सरल है की पोषण एवं संहार ही होना चाहिए।


प्रश्न---

     पोषण एवं संहार कौन करता है?


उत्तर---

      मूल तत्त्व केवल भगवान कृष्ण है परन्तु इस सकल संसार के लिया अन्य देवी देवता भगवान की आज्ञा से सृष्टि सेवा में व्यस्त है।


हेतवे –

      जिसका हेतु, निर्माता।


त्रय –

      तीनों,


ताप –

       दुःख का विभाजन।

       अध्यात्मिक, अधिदैविक एवं अधिभौतिक,


विनाशाय –

       संपूर्ण नष्ट करता है।


श्री –

     श्री राधा।


प्रश्न--

      यह राधा का नाम क्युं? 


उत्तर---

     वैदिक धर्मं अनुसार, जब हम प्रभु के नाम लेते हैं, उसके पहले हम उसके दैवीयशक्ति का आवाहन एवं स्मरण करते हैं।

श्रीमती राधारानी, श्री कृष्ण की अविछिन ह्लादिनी शक्ति है. श्री राधाजिकी कृपा से ही जीव श्री कृष्ण प्रेम को अनुभव कर सकते है।


कृष्णाय – 

         उस कृष्ण को जो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान है।


वयम –

       हम सब जीव।


नुमः –

      नमन करते हैं।


जब इस श्लोक का विभाजन करते हैं तो श्री कृष्ण के तीन लक्षणों के दर्शन होते है, वह है स्वरूप, कार्य और स्वभाव-

         सत, चित और आनंद, श्री कृष्णकी स्वरूप दर्शन है।


श्री कृष्ण का कार्य दर्शन है इस सकल संसार की उत्पत्ति, पालन एवं अंत में संहार, एवं तीसरा दर्शन है भगवान का स्वभाव, जो संतो, भक्तो एवं साधको के तीनों दुःख को मूल से विनाश कर देते हैं।

 .                               "मित्रता"


          इन्द्र से वरदान में प्राप्त एक अमोघ शक्ति कर्ण के पास थी, इन्द्र का कहा हुआ था कि 'इस शक्ति को तू प्राण संकट में पड़कर एक बार जिस पर भी छोड़ेगा, उसी की मृत्यु हो जायगी, परंतु एक बार से अधिक इसका प्रयोग नहीं हो सकेगा।' कर्ण ने वह शक्ति अर्जुन को मारने के लिये रख छोड़ी थी। उसे रोज दुर्योधनादि कहते कि तुम उस शक्ति का प्रयोग कर अर्जुन को मार क्यों नहीं देते। वह कहता कि आज अर्जुन के सामने आते ही उसे जरूर मारूंगा, पर रण में अर्जुन के सामने आने पर कर्ण इस बात को भूल जाता और उसका प्रयोग न करता। कारण यही था कि अर्जुन का रथ सामने आते ही कर्ण को पहले भगवान् के दर्शन होते । भगवान् उसे मोहित कर लेते जिससे वह शक्ति छोड़ना भूल जाता। अर्जुन को इस शक्ति के सम्बन्ध में कोई पता नहीं था, परंतु भगवान् सारी बातें जानते थे और वे हर तरह से अर्जुन को बचाने और जिताने के लिये सचेष्ट थे। उन्होंने स्वयं ही सात्यकि से कहा था-


        अहमेव     तु     राधेयं     मोहयामि     युधांवर।

        ततो    नावासृजच्छक्तिं    पाण्डवे    श्वेतवाहने॥

        फाल्गुनस्य  हि सा  मृत्युरिति चिन्तयतोऽनिशम्।

        न  निद्रा  न  च  मे  हर्षों   मनसोऽस्ति  युधांवर॥

        न  पिता  न  च  में  माता  न  यूयं   भ्रातरस्तथा।

        न  च  प्राणस्तथा   रक्ष्या   यथा   बीभत्सुराहवे॥

        त्रैलोक्यरान्याद् यत्किञ्चिद् भवेदन्यत्सुदुर्लभम्।

        नेच्छेयं  सात्वताहं  तद् विना  पार्थं धनञ्जयम्॥

        अतः  प्रहर्षः   सुमहान्   युयुधानाद्य   मेऽभवत्।

        मृतं   प्रत्यागतमिव   दृष्ट्वा   पार्थं  धनञ्जयम्॥

                         (द्रोणपर्व १८२/४०-४१, ४३-४५)


          ‘सात्यकि! मैंने ही कर्ण को मोहित कर रखा था, जिससे वह श्वेत घोड़ों वाले अर्जुन को इन्द्र की दी हुई शक्ति से नहीं मार सका था। इस शक्ति के निमित्त कर्ण को अर्जुन का काल समझने के कारण मुझे रात को नींद नहीं आती थी और कभी मन प्रसन्न नहीं रहता था। मैं अपने माता-पिता की, तुम लोगों की, भाइयों की और अपने प्राणों की रक्षा करना भी उतना आवश्यक नहीं समझता, जितना रण में अर्जुन की रक्षा करना समझता हूँ। सात्यकि! तीनों लोकों के राज्यों की अपेक्षा भी कोई वस्तु अधिक दुर्लभ हो तो मैं उसे अर्जुन को छोड़कर नहीं चाहता। अतः युयुधान! आज अर्जुन मानो मरकर लौट आये हों, इस प्रकार इन्हें जीता-जागता देख मुझे बड़ा भारी हर्ष हो रहा है।' धन्य हैं।

          इसीलिये भगवान् ने भीम पुत्र घटोत्कच को रात के समय युद्धार्थ भेजा। घटोत्कच ने अपनी राक्षसी माया से कौरव सेना का संहार करते-करते कर्ण का नाकों दम कर दिया, दुर्योधन आदि सभी घबरा गये। सभी ने खिन्न मन से कर्ण को पुकार कर कहा कि बस आधी रात के समय यह राक्षस हम सबको मार ही डालेगा, फिर भीम-अर्जुन हमारा क्या करेंगे। अतएव तुम इन्द्र की शक्ति का प्रयोग कर इसे पहले मारो, जिससे हम सबके प्राण बचें। आखिर कर्ण को वह शक्ति घटोत्कच पर छोड़नी पड़ी। शक्ति लगते ही घटोत्कच मर गया। वीर-पुत्र घटोत्कच की मृत्यु देखकर सभी पाण्डवों की आँखों में आँसू भर आये, परंतु श्रीकृष्ण को बड़ी प्रसन्नता हुई, वे हर्ष से प्रमत्त-से होकर बार-बार अर्जुन को हृदय से लगाने लगे। अर्जुन ने कहा-'भगवन् ! यह क्या रहस्य है ? हम सबका तो धीरज छूटा जा रहा है और आप हँस रहे हैं ?' तब श्रीकृष्ण ने सारा भेद बताकर कहा कि 'प्रिय पार्थ ! इन्द्र ने तेरे हित के लिये कर्ण से कवच-कुण्डल ले लिये थे। बदले में उसे एक शक्ति दी थी, वह शक्ति कर्ण ने तेरे मारने के लिये रख छोड़ी थी। उस शक्ति के कर्ण के पास रहते मैं सदा तुझे मरा ही समझता था। मैं सत्य की शपथ खाकर कहता हूँ कि आज भी, शक्ति न रहने पर भी, कर्ण को तेरे सिवा दूसरा कोई नहीं मार सकता। वह ब्राह्मणों का भक्त, सत्यवादी, तपस्वी, व्रताचारी और शत्रुओं पर भी दया करने वाला है। मैंने घटोत्कच को इसी उद्देश्य से भेजा था। अर्जुन ! तेरे हित के लिये ही मैं यह सब किया करता हूँ। चेदिराज शिशुपाल, भील एकलव्य, जरासन्ध आदि को विविध कौशलों से मैंने इसीलिये मारा था, मरवाया था, जिससे वे महाभारत-समर में कौरव का पक्ष न ले सकें। वे आज जीवित होते तो तेरी विजय बहुत ही कठिन होती। फिर यह घटोत्कच तो ब्राह्मणों का द्वेषी, यज्ञद्वेषी, धर्म का लोप करनेवाला और पापी था। इसे तो मैं ही मार डालता, परंतु तुम लोगों को बुरा लगेगा, इसी आशंका से नहीं मारा। आज मैंने ही इसका नाश करवाया है-


          ये हि धर्मस्य  लोसारो वध्यास्ते  मम पाण्डव।

          धर्मसंस्थापनार्थं   हि  प्रतिज्ञेषा  मया  कृ ता॥

          ब्रह्म सत्यं दमः शौचं धर्मो ह्रीः श्रीधृतिः क्षमा।

          यत्र   तत्र   रमे   नित्यमहं   सत्येन   ते  शपे॥

                                (द्रोणपर्व १८१/२८,२९,३०)


          ‘जो पुरुष धर्म का नाश करता है, मैं उसका वध कर डालता हूँ। धर्म की स्थापना करना ही मेरी प्रतिज्ञा है। मैं यह शपथ खाकर कहता हूँ कि जहाँ ब्रह्म भाव, सत्य, इन्द्रियदमन, शौच, धर्म, (बुरे कर्मोमें) लज्जा, श्री, धैर्य और क्षमा हैं, वहाँ मैं नित्य निवास करता हूँ।'

          अभिप्राय यह है कि तुम्हारे अंदर ये सब गुण हैं, इसीलिये मैं तुम्हारे साथ हूँ और इसीलिये मैंने कौरवों का पक्ष त्याग रखा है, नहीं तो मेरे लिये सभी एक-से हैं। फिर तुम घटोत्कच के लिये शोक क्यों करते हो ? अपना पुत्र भी हो तो क्या हुआ, जो पापी है, वह सर्वथा त्याज्य है। इस प्रकार मित्र अर्जुन के प्राण और धर्म की भगवान् ने रक्षा की।

      "जय जय श्री राधे"।🙏🙏

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कुछ लोगों को ऊंचाई पर पहुँचने की इतनी ज्यादा जल्दी होती है कि ...

छोटे लोगों के हाथ पकड़ने के बजाय बड़े लोगों के पांव पकड़ लेते हैं।


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 *शब्दों में धार नहीं,*

*बल्कि आधार होना चाहिए,*

*क्योंकि जिन शब्दों में धार होती है,वो मन को काटते है,*

*और जिन शब्दों में आधार होता है, वो मन को जीत लेते है..!

 *दक्षिणा का महत्व*


ब्राह्मणों की दक्षिणा हवन की पूर्णाहुति करके एक मुहूर्त ( 24 ) मिनट के अन्दर दे देनी चाहिये , अन्यथा मुहूर्त बीतने पर 100  गुना  बढ जाती है , और तीन रात बीतने पर एक हजार , सप्ताह बाद दो हजार ,महीने बाद एक लाख , और  संवत्सर बीतने पर तीन करोड गुना यजमान को देनी होती है । यदि नहीं दे तो उसके बाद उस यजमान का  कर्म निष्फल हो जाता है , और  उसे ब्रह्महत्या लग जाती है , उसके हाथ से किये जाने वाला हव्य - कव्य देवता और पितर कभी प्राप्त नहीं करते हैं । इसलिए  ब्राह्मणों की दक्षिणा जितनी जल्दी हो देनी चाहिये ।


👆यह जो कुछ भी कहा है सबका शास्त्रोॆ में प्रमाण है ।👇


मुहूर्ते समतीते तु , भवेच्छतगुणा च सा ।


त्रिरात्रे तद्दशगुणा , सप्ताहे द्विगुणा मता ।।


मासे लक्षगुणा प्रोक्ता ,ब्राह्मणानां च वर्धते ।


संवत्सर व्यतीते तु , त्रिकोटिगुणा भवेत् ।।


कर्म्मं तद्यजमानानां , सर्वञ्च निष्फलं भवेत् ।


सब्रह्मस्वापहारी च , न कर्मार्होशुचिर्नर: ।।


🚩इसलिए चाणक्य ने कहा """नास्ति यज्ञसमो रिपु: """ मतलब यज्ञादि कर्म विधि से सम्पन्न हो तब लाभ अन्यथा सबसे बडे शत्रु की तरह है ।


🚩गीता में स्वयं भगवान ने कहा 👇


विधिहीनमसृष्टान्नं , मन्त्रहीनमदक्षिणम् ।


श्रद्धाविरहितं यज्ञं , तामसं परिचक्षते ।।


🚩बिना सही विधि से बनाया भोजन जैसे परिणाम में नुकसान करता है , वैसे ही ब्राह्मण के बोले गये मन्त्र दक्षिणा न देने पर नुकसान करते हैं ।


🚩शास्त्र कहते हैं लोहे के चने या टुकडे भी व्यक्ति पचा सकता है परन्तु ब्राह्मणों के धन को नहीं पचा सकता है ।किसी भी उपाय से ब्राह्मणों का धन लेने वाला हमेशा दु:ख ही पाता है । इस पर एक कहानी सुनाता हूँ शास्त्रों में वर्णित 👇


🚩 महाभारत का युद्ध चल रहा था , युद्ध के मैदान में सियार , आदि हिंसक जीव  योद्धाओं के गरम -२ खून को पी रहे थे , इतने में ही धृष्टद्युम्न ने तलवार से पुत्रशोक से दु:खी निशस्त्र द्रोणाचार्य की गर्दन काट दी । तब द्रोणाचार्य के गरम -२ खून को पीने के लिए सियारिन दौडती है , तो सियार अपनी सियारिन से कहता है 👇


🚩प्रिये  """ विप्ररक्तोSयं गलद्दगलद्दहति """ 


👆यह ब्राह्मण का खून है इसे मत पीना , यह शरीर को गला- गला कर नष्ट कर देगा । तब उस सियारिन ने भी ब्राह्मण द्रोणाचार्य का रक्तपान नहीं किया ।


🚩ऋषि - मुनियों का कर के रुप में खून लेने पर ही रावण के कुल का संहार हो गया ।इसलिए जीवन में कभी भी ब्राह्मणों के द्रव्य का अपहरण किसी भी रुप में नहीं करना चाहिये ।


🚩वित्तशाट्ठ्यं न कुर्वीत, सति द्रव्ये फलप्रदम ।


अनुष्ठान , पाठ - पूजन जब भी करवायें ब्राह्मणों को उचित दक्षिणा देनी चाहिये , और दक्षिणा के अतिरिक्त उनके आने - जाने का किराया आदि -२ पूछकर अलग से देना चाहिये । 


🚩उसके बाद विनम्रता से ब्राह्मणों की वचनों द्वारा भी सन्तुष्टि करते हुए आशीर्वाद देना चाहिये , ऐसा करने पर ब्राह्मण मुँह से नहीं बल्कि हृदय से आशीर्वाद देता है , और तब यजमान का कल्याण होता है ।


🚩यत्र भुंड्क्ते द्विजस्तस्मात् , तत्र भुंड्क्ते हरि: स्वयम् ।।


*_👆 जिस घर में इस तरह श्रद्धा से ब्राह्मण भोजन करवाया जाता है , वहाँ ब्राह्मण के रुप में स्वयं भगवान ही भोजन करते हैं । इत्यलम् - बहुत बडा हो जायेगा । धन्यवाद , पढें और आचरण भी करे ।*

जय श्री कृष्णा जय जगन्नाथ

*🌹नारायण सेवा🌹*

  *🌹जय जय मां 🌹*

🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹

 *_🎷जय श्री राम_ 🎷*

*हम...*

     *प्रभु श्री राम का नाम संकट में ही नहीं लेते..!*  

    *_बल्कि.._*

      *हमेंशा राम नाम लेते रहते हैं जिससे "जिंदगी" में आने वाले "संकट" आसानी से टल जाते हैं...!!*

           *🕉️🦚🕉️*



पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रदं।

मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपूरं शुभम्‌।

श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये।

ते संसारपतंगघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः॥


भावार्थ:-यह श्री रामचरित मानस पुण्य रूप, पापों का हरण करने वाला, सदा कल्याणकारी, विज्ञान और भक्ति को देने वाला, माया मोह और मल का नाश करने वाला, परम निर्मल प्रेम रूपी जल से परिपूर्ण तथा मंगलमय है। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इस मानसरोवर में गोता लगाते हैं, वे संसाररूपी सूर्य की अति प्रचण्ड किरणों से नहीं जलते।

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🌺🌼🌻🚩जय श्री सीतारामजी की🚩🌻🌼🌺

अयोध्या में आज का आधुनिक सुविधाएं

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