शनिवार, 25 दिसंबर 2021

 रिश्तों में बढती हुई नफरत का 

कारण ये भी है, कि आजकल 

लोग गैरो को अपना बनाने में 

और अपनो को नजर अंदाज 

करने में लगे है,,

 

 नम: श्रीविश्वनाथाय

     देववन्द्यपदाय    ते ।

काशीशेशावतारो में

     देवदेव  ह्युपादिश ।।

मायाधीशं महात्मानं

       सर्वकारणकारणम्।

वन्दे तं माधवं देवं

     य: काशीं चाधितिष्ठति।।


हे देवदेव! आपने काशीमें‌ शासन करने हेतु मंगलमूर्ति शिवके रूपमें अवतार लिया है।आप विश्वके नाथ हैं, देवता आपके चरणोंकी वन्दना करते हैं,आप मुझको उपदेश दें, आपको नमस्कार है।

          जो मायाके अधीश्वर हैं, महान् आत्मा हैं,सभी कारणों के कारण हैं और जो काशीको सदा अपना अधिष्ठान बनाते हुए हैं,ऐसे उन भगवान् माधवको मैं प्रणाम करता‌ हूं।'

सुप्रभात, देवाधिदेव महादेव श्री काशी विश्वनाथ जी की कृपा दृष्टि सदैव आप एवं आपके परिवार पर बनी रहे ।  आज एक ऐतिहासिक दिन है ,जब श्री काशी विश्वनाथ धाम एक नए रूप में हम लोगों के सामने अवतरित होगा । धाम की दिव्यता को बढ़ाने हेतु आदरणीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी को कोटि कोटि धन्यवाद जिन्होंने काशी विश्वनाथ की गरिमा के अनुसार उनके धाम को प्रतिस्थापित किया । धाम की आभा एवं उसकी दिव्यता देखते ही बनती हैं । इस ऐतिहासिक एवं अविस्मरणीय दिन की एक बार पुनः आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएं । बाबा विश्वनाथ की असीम कृपा सदा सर्वदा आप लोगों पर बनी रहे । सदैव मानव जाति का कल्याण होता रहे । हमारा भारत नित् निरंतर आध्यात्मिक सांस्कृतिक एवं भौतिक प्रगति करता रहे । बाबा विश्वनाथ के श्री चरणों में बारंबार प्रणाम । 🙏🙏

 *जय श्री राम*

*ढल जाती है हर चीज़ अपने एक तय वक्त पर*

*लेकिन प्रेम, अपनत्व और एक दोस्ती है जो कभी बूढ़ी नहीं होता है।



निश्चित्वा यः प्रक्रमते 

        नान्तर्वसति कर्मणः,

 अवन्ध्यकालो वश्यात्मा 

         स वै पण्डित उच्यते।।


भावार्थः- *जिनके प्रयास एक दृढ़ प्रतिबद्धता से शुरु होते हैं, जो कार्य पूर्ण होने तक ज्यादा विश्राम नहीं करते हैं, जो समय नष्ट नहीं करते हैं और जो अपने विचारों पर नियंत्रण रखते हैं, वह बुद्धिमान है।।*


🌹🙏 *_गिरीराज धरण की जय हो_*🙏🌹


*ना_जाने_किस_रूप_में


*हरिहर एक सीधा-साधा किसान था। वह दिन भर खेतों में मेहनत से काम करता और शाम को प्रभु का गुणगान करता।*


*उसके मन की एक ही साध थी। वह उडुपि के भगवान श्री कृष्ण के दर्शन करना चाहता था। उडुपि दक्षिण कन्नड़ जिले का प्रमुख तीर्थ था। प्रतिवर्ष जब तीर्थयात्री वहां जाने को तैयार होते तो हरिहर का मन भी मचल जाता किंतु धन की कमी के कारण उसका जाना न हो पाता।*


*इसी तरह कुछ वर्ष बीत गए। हरिहर ने कुछ पैसे जमा कर लिए। घर से निकलते समय उसकी पत्नी ने बहुत-सा* *खाने-पीने का सामान बाँध दिया। उन दिनों यातायात के साधनों का अभाव था। तीर्थयात्री पैदल ही जाया करते।*


*रास्ते में हरिहर की भेंट एक बूढ़े व्यक्ति से हुई। बूढ़े के कपड़े फटे-पुराने थे और पाँव में जूते तक न थे। अन्य तीर्थयात्री उससे कतराकर निकल गए किंतु हरिहर से न रहा गया। उसने बूढ़े से पूछा-*

*'बाबा, क्या आप भी उडुपि जा रहे हैं?'*

*बूढ़े की आँखों में आँसू आ गए। उसने रुँधे स्वर में उत्तर दिया-*


*'मैं भला तीर्थ कैसे कर सकता हूँ? एक बच्चा तो बीमार है और दूसरे बेटे ने तीन दिन से कुछ नहीं खाया।'*


*हरिहर भला व्यक्ति था। उसका मन पसीज गया। उसने निश्चय किया कि वह उडुपि जाने से पहले बूढ़े के घर जाएगा। बूढ़े के घर पहुँचते ही हरिहर ने सबको भोजन खिलाया। बीमार बच्चे को दवा दी। बूढ़े के खेत, बीजों के अभाव में खाली पड़े थे। लौटते-लौटते हरिहर ने उसे बीजों के लिए भी धन दे दिया। जब वह उडुपि जाने लगा तो उसने पाया कि सारा धन तो खत्म हो गया था। वह चुपचाप अपने घर लौट आया। उसके मन में तीर्थयात्रा न करने का कोई दुख न था बल्कि उसे खुशी थी कि उसने किसी का भला किया है।*


*हरिहर की पत्नी भी उसके इस कार्य से प्रसन्‍न थी। रात को हरिहर ने सपने में भगवान कृष्ण को देखा। उन्होंने उसे आशीर्वाद दिया और कहा-*


*'हरिहर, तुम मेरे सच्चे भक्त हो। जो व्यक्ति मेरे ही बनाए मनुष्य से प्रेम नहीं करता, वह मेरा भक्त कदापि नहीं हो सकता।'*


*तुमने उस बूढ़े की सहायता की और रास्ते से ही लौट आए। उस बूढ़े व्यक्ति के वेष में मैं ही था। अनेक तीर्थयात्री मेरी उपेक्षा करते हुए आगे बढ़ गए, एक तुमने ही मेरी विनती सुनी।*


*मैं सदा तुम्हारे साथ रहूँगा! अपने स्वभाव से दया, करुणा और प्रेम का त्याग मत करना।'*


*हरिहर को तीर्थयात्रा का फल मिल गया था।*


*हमारे आस-पास जो दीन दुखी है, गाय या कोई अन्य जीव है उनकी सहायता, सेवा जैसे भी हो अवश्य करें क्योंकि*

*ना जाने किस रूप में नारायण मिल जाए..!!*

   *🙏🏼🙏🏿🙏🏾जय जय श्री राधे*🙏🏽🙏🏻🙏

 *संसार में सबसे ताकतवर*

           *व्यक्ति वही है.!*

    *जो "धोखा" खाने के बाद भी,*

*लोगो की भलाई करना नही छोड़ता.!!*


      

 .                            "अमूल्य दान"


         कुरुक्षेत्र युद्ध में विजय पाने की खुशी में पाण्डवों ने राजसूय यज्ञ किया। दूर-दूर से आए हजारों लोगों को बड़े पैमाने पर दान दिया गया। यज्ञ समाप्त होने पर चारों तरफ पाण्डवों की जय-जयकार हो रही थी। पांचो पाण्डव तथा श्रीकृष्ण यज्ञ की सफलता की चर्चा में मग्न थे। पाण्डव इस बात से संतुष्ट थे कि इस राजसूय यज्ञ का फल उन्हें अवश्य प्राप्त होगा।

         तभी एक नेवला जिसका आधा शरीर सुनहरा और आधा भूरा था, राजमहल के भण्डारगृह से बाहर निकला और यज्ञभूमि पर लोटने लगा। फिर वापस भण्डार गृह में चला गया। यह प्रक्रिया उसने चार-पांच बार दोहराई। इस विलक्षण नेवले की विचित्र हरकतें देख कर पांडवों को बड़ा आश्चर्य हुआ। 

         धर्मराज युधिष्ठिर पशु-पक्षियों की भाषा जानते थे। उन्होंने नेवले से कहा, यह तुम क्या कर रहे हो ? तुम्हें किस वस्तु की तलाश है ? नेवले ने आदरभाव से युधिष्ठिर को प्रणाम किया और बोला, हे राजन, आपने जो महान यज्ञ सम्पन्न किया है, उससे आपकी कीर्ति दसों दिशाओं में व्याप्त हो गई है। इस यज्ञ से आपको जिस पुण्य की प्राप्ति होगी, उसका कोई अंत नहीं है। मैं तो इस पुण्य के अनन्त सागर में से पुण्य का एक छोटा-सा कण अपने लिए ढूंढ रहा हूँ। लोग झूठ कहते हैं कि इससे वैभवशाली यज्ञ कभी नहीं हुआ, पर यह यज्ञ तो कुछ भी नहीं है। यज्ञ तो वह था जहाँ लोटने से मेरा आधा शरीर सुनहरा हो गया था। युधिष्ठिर के उस यज्ञ के बारे में पूछने पर नेवले ने कहा,

         एक बार भयानक अकाल पड़ा। लोग भूख और प्यास के मारे प्राण त्यागने लगे। चारों ओर त्राहि-त्राहि मची हुई थी। उस समय एक गाँव में एक गरीब ब्राह्मण अपनी पत्नी, पुत्र और पुत्रवधू के साथ रहता था। कई दिन तक ब्राह्मण परिवार में किसी को अन्न नहीं मिला। 

         एक दिन वह ब्राह्मण कहीं से थोड़ा-सा सत्तू माँगकर लाया और उसमें जल मिलाकर उसके चार गोल लड्डू जैसे बना लिये। जैसे ही ब्राह्मण अपने परिवार सहित उस सत्तू के लड्डूओं को खाने लगा, उसी समय एक अतिथि ब्राह्मण ने दरवाजे पर आकर कहा, मैं छ: दिनों से भूखा हूँ कृपया मेरी क्षुधा शान्त करें।

         अतिथि को भगवान् का रूप मानकर पहले वाले ब्राह्मण ने अपने हिस्से का सत्तू अतिथि को दे दिया, मगर उसे खाने के बाद भी अतिथि की भूख नहीं मिटी। तब ब्राह्मणी ने अपने हिस्से का सत्तू अतिथि को दे दिया इससे भी उसका पेट नहीं भरा तो बेटे और पुत्रवधू ने भी अपने-अपने हिस्से का सत्तू अतिथि को दे दिया। 

         अतिथि ब्राह्मण उस सत्तू को खाकर तृप्त हो गया और उसी स्थान पर हाथ धोकर चला गया। उस रात भी ब्राह्मण परिवार भूखा ही रह गया और कई दिन की भूख से उन चारों का प्राणान्त हो गया।

         जहाँ अतिथि ब्राह्मण ने हाथ धोए थे वहाँ सत्तू के कुछ कण जमीन पर गिरे पड़े थे। मैं (नेवला) उन कणों पर लोटने लगा तो जहाँ तक मेरे शरीर से उन कणों का स्पर्श हुआ, मेरा शरीर सुनहरा हो गया। मैं समझ नहीं पा रहा था कि यह सब कैसे हो गया ? 

         मैं एक ऋषि के पास पहुँचा और उन्हें सारा वृतान्त सुनाकर यह जानने की जिज्ञासा प्रकट की कि मेरे शरीर का आधा भाग सोने का कैसे हो गया ? ऋषि अपने ज्ञान के बल पर पूरी घटना जान गए थे और बोले, जिस जगह तुम लेटे हुए थे, उस स्थान पर सत्तू का थोड़ा-सा अंश बिखरा हुआ था। वह चमत्कारिक सत्तू तुम्हारे शरीर के जिस-जिस भाग पर लगा वह भाग स्वर्णिम हो गया है।

         इस पर मैंने ऋषि से कहा, कृपया मेरे शरीर के शेष भाग को भी सोने का बनाने हेतु कोई उपाय बताइए। ऋषि ने कहा, उस परिवार ने धर्म और मानवता के लिए अपने प्राणों का बलिदान दिया है। यही कारण है कि उसके बचे हुए अन्न में इतना प्रभाव उत्पन्न हो गया कि उसके स्पर्शमात्र से तुम्हारा आधा शरीर सोने का हो गया। भविष्य में यदि कोई व्यक्ति उस परिवार की भांति ही धर्मपूर्ण कार्य करेगा तो उसके बचे हुए अन्न के प्रभाव से तुम्हारा शेष शरीर भी स्वर्णिम हो जाएगा। 

         तब से मैं सारी दुनिया में घूमता फिरता हूँ कि वैसा ही यज्ञ कहीं और हो, लेकिन वैसा कहीं देखने को नहीं मिला इसलिए मेरा आधा शरीर आज तक भूरा ही रह गया है।

         जब मैंने आपके राजसूय यज्ञ के बारे में सुना, तो सोचा, आपने इस यज्ञ में अपार सम्पदा निर्धनों को दान की है और लाखों भूखों को भोजन कराया है, उसके प्रताप से मेरा शेष आधा शरीर भी सोने का हो जाएगा। यह सोचकर मैं बार-बार यज्ञभूमि में आकर धरती पर लोट रहा था किंतु मेरा शरीर तो पूर्व की ही भांति है। नेवले की बात सुनकर युधिष्ठिर लज्जित हो गए।

         श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को जब इस प्रकार चिंतामग्न देखा तो बोले, यह सत्य है कि आपका यज्ञ अपने में अद्वितीय था, जिसमें आप लोगो ने असंख्य भूखे व्यक्तियों की भूख शांत की, किन्तु नि:संदेह उस परिवार का दान आपके यज्ञ से बहुत बड़ा था क्योंकि उन लोगों ने उस स्थिति में दान दिया, जब उनके पास कुछ नहीं था। अपने प्राणों को संकट में डालकर भी उस परिवार ने अपने पास उपलब्ध समस्त सामग्री उस अज्ञात अतिथि की सेवा में अर्पित कर दी। आपके पास बहुत कुछ होते हुए भी आपने उसमें से कुछ ही भाग दान किया। अतः आपका दान उस परिवार के अमूल्य दान की तुलना में पासंग भर भी नहीं है।

         श्रीकृष्ण की बात सुनकर सभी पांडवों को समझ में आ गया कि दान, यज्ञ, तप आदि में आडम्बर होने से कोई फल प्राप्त नहीं होता है। दान आदि कार्य सदैव ईमानदारी के पैसे से ही करने चाहिए।

                      ----------:::×:::---------


       "जय जय श्री राधे"

**********************

**********************

अयोध्या में आज का आधुनिक सुविधाएं

  राममंदिर परिसर राममय होने के साथ-साथ आधुनिक सुविधाओं से भी लैस होगा। रामलला के दरबार में रामभक्तों को दिव्य दर्शन की अनुभूति होगी। एक साथ ...