शनिवार, 25 दिसंबर 2021

 *गङ्गाधरं शशिकिशोरधरं त्रिलोकी*-

*रक्षाधरं निटिलचन्द्रधरं त्रिधारम्।*

*भस्मावधूलनधरं गिरिराजकन्या-*

*दिव्यावलोकनधरं वरदं प्रपद्ये।।*


*देवाधिदेव बाबा विश्वनाथ की जय।*


*हर हर महादेव!*

 *जय श्री राम*

*सादगी परम सौंदर्य है क्षमा उत्कृष्ट बल है..!*

*विनम्रता सबसे अच्छा तर्क है, और अपनापन सर्वश्रेष्ठ रिश्ता है..!!*

*शुभ प्रभात.......*

*आपका दिन मंगलमय हो*



अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं

दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्‌।


सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं

रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि॥ 


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        अतुल बल के धाम, सुमेरु के पर्वत के समान कान्ति से युक्त शरीर वाले, दैत्य रूपी वन को ध्वंस करने के लिए अग्नि रूप, ज्ञानियों में अग्रगण्य, संपूर्ण गुणों के निधान, वानरों के स्वामी, श्रीरघुनाथ जी के प्रिय भक्त पवन के पुत्र श्रीहनुमान्‌ जी को मैं नमन करता हूँ। 





राम  भालु  कपि कटुक बटोरा।

सेतु  हेतु  श्रमु  कीन्ह न  थोरा॥

नामु  लेत  भवसिन्धु   सुखाहीं।

करहु  बिचारु सुजन मन माहीं॥

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      श्रीरामजी को तो भालू और बंदरों की सेना को एकत्र करने में और समुद्र पर पुल बाँधने के लिए बहुत परिश्रम करना पड़ा था, लेकिन नाम लेने मात्र से संसार समुद्र ही सूख जाता है, सज्जन मनुष्यों मन में विचार तो करो।

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 *"रास्ते" पर "गति" की सीमा है.!* 

*"बैंक" में "पैसों" की सीमा है.!*

*"परीक्षा" में "समय" की सीमा है.!*

 *परन्तु, हमारे "सोच" की कोई सीमा नही.!* *इसलिए "सदा" "श्रेष्ठ" "सोचें" और "श्रेष्ठ" पाएं..!!*

 *सानन्दं सदनं सुताश्च सुधिय:*

               *कान्ता प्रियभाषिणी l*

*सन्मित्रं सधनं स्वयोषिति रति:*

               *चाज्ञापरा: सेवका:  ll*

*आतिथ्यं शिवपूजनं प्रतिदिनं*

                *मिष्ठान्नपानं गृहे   l*

*साधो: संगमुपासते हि सततं*

                *धन्यो गृहस्थाश्रम:  ll*


भावार्थ -- *घर में सभी आनन्द हों, पुत्र बुद्धिमान् हो, पत्नी प्रिय बोलने वाली हो, अच्छे मित्र हो, धन हो, पति - पत्नी में प्रेम हो, सेवक आज्ञाकारी हो, जहां अतिथि सत्कार हो, सदा देव - पूजन होता हो, प्रतिदिन स्वादानुसार भोजन बनता हो और सत्पुरुषों का हमेशा संग होता हो -- ऐसा गृहस्थाश्रम धन्य है l*


            



      *यदि मनुष्य के मन में लोभ की ऐसी वृत्ति आवे कि हमें लाभ हो, तो उसे अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता, क्योंकि यह व्यक्ति के स्वभाव में है कि वह जब कोई कार्य करता है, तो उसमें लाभ चाहता है- नौकरी में लाभ, व्यापार में लाभ। अतएव यह नहीं कहा जा सकता कि लाभ की वृत्ति समाज से पूरी तरह मिट जाय या मिट जानी चाहिए। लोभ में में यदि एक ही इच्छा आवे तब वह समाज के लिए प्रायः घातक नहीं होती है, लेकिन जब लोभ की वृत्ति के रूप में मंथरा जीवन में आती है तब वह ऐसी प्रेरणा करती है कि व्यक्ति कभी भी एक वरदान नहीं माँगता, वह हमेशा दो वरदान माँगता है, कहता है कि मुझे लाभ हो और बगल वाले को घाटा जरूर हो। ऐसे लोभी को अपने लाभ का पूरा आनन्द तब मिलता है, जब दूसरे की हानि होती है। जब लोभ में ऐसी प्रवृत्ति आती है, तब वह रामराज्य में बाधक बन जाती है। कैकेयी और प्रतापभानु दोनों के जीवन में ऐसा विकृत लोभ दिखाई पड़ता है, पर अन्त में जाकर कैकेयी का रोग साध्य हो गया, जबकि प्रतापभानु का असाध्य। इस अन्तर का कारण यह था कि कैकेयी को श्री भरत के रूप में एक विलक्षण वैद्य मिले, जबकि प्रतापभानु को कपटमुनि के रूप में ठग-वैद्य मिला।*



अयोध्या में आज का आधुनिक सुविधाएं

  राममंदिर परिसर राममय होने के साथ-साथ आधुनिक सुविधाओं से भी लैस होगा। रामलला के दरबार में रामभक्तों को दिव्य दर्शन की अनुभूति होगी। एक साथ ...